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दूसरा स्तबक
. यदि नियति स्वरूप आदि की दृष्टि से (अर्थात् स्वरूप तथा अवस्थान्तर प्राप्ति दोनों की दृष्टि से) केवल नियति है (अन्य कुछ नहीं) तो उसे अनेक रूप वाली मानना तबतक युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता जबतक इस अनेकता के कारणभूत किसी तत्त्वान्तर की सत्ता स्वीकार न की जाए; तार्किक मर्म की अविरोधी मान्यता तो यही है ।
न जलस्यैकरूपस्य वियत्याताद् विचित्रता ।
ऊषरादिधराभेदमन्तरेणोपजायते ॥१८३॥
(उदाहरण के लिए) एक रूप वाला जल आकाश से नीचे गिरने के बाद अनेक रूप वाला तब तक नहीं बनता जबतक वह ऊसर आदि अनेक प्रकार की भूमियों से संमिश्रित नहीं होता ।
तद्भिन्नभेदकत्वे च तत्र तस्या न कर्तृता । तत्कर्तृत्वे च चित्रत्वं तद्वत् तस्याप्यसंगतम् ॥१८४॥
यदि नियति से अतिरिक्त किसी तत्त्व को जगत् की वस्तुओं को परस्पर विभिन्नता का कारण माना जाए तो कहना हुआ कि इस अतिरिक्त तत्त्व का कारण नियति नहीं, और यदि इस अतिरिक्त तत्त्व का कारण नियति सचमुच है तो जगत् की वस्तुओं की परस्पर विभिन्नता के लिए इस तत्त्व को उत्तरदायी मानना वैसा हि अयुक्तिसंगत है जैसा कि नियति को उसके लिए उत्तरदायी मानना ।
तस्या एव तथाभूतः स्वभावो यदि चेष्यते । त्यक्तः नियतिवादः स्यात् स्वभावाश्रयणान्ननु ॥१८५॥
कहा जा सकता है कि नियति का यह स्वभाव ही है कि वह परस्परविभिन्न वस्तुओं को जन्म देती है, लेकिन ऐसा कहने का अर्थ हुआ नियतिवाद को तिलांजलि देना और वह इसलिए कि तब तो आश्रय स्वभाववाद का लिया गया ।
स्वो भावश्च स्वभावोऽपि स्वसत्तैव हि भावतः । तस्यापि भेदकाभावे वैचित्र्यं नोपपद्यते ॥१८६॥
फिर 'स्वभाव' शब्द की व्युत्पत्ति है 'स्व (अपनी) भाव (सत्ता)" और इससे सिद्ध हुआ कि 'स्वभाव' शब्द का वास्तविक अर्थ है 'अपनी सत्ता' । लेकिन उस दशा में तो जगत् की वस्तुओं की परस्पर विभिन्नता का कारण
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