SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ शास्त्रवार्त्तासमुच्चय हम उससे आशा रखते हैं । हमारी इस आशा को जन्म दिया होता है इस कारणसामग्री के स्वभाव आदि संबंधी हमारे अध्ययनने, और कर्मवादी का तर्क है कि जब इस प्रकार के अध्ययन से जनित आशा भी निराशा में परिणत हो · सकती है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उन उन कार्यों की उत्पत्ति के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी तत्त्व कारण - सामग्री का स्वभाव आदि नहीं प्राणीयों का "कर्म" है । चित्रं भोग्यं तथा चित्रात् कर्मणोऽहेतुताऽन्यथा । तस्य यस्माद् विचित्रत्वं नियत्यादेर्न युज्यते ॥ १८० ॥ इस प्रकार विभिन्न भोग-विषयों का कारण विभिन्न कर्म सिद्ध होते हैं; वरना कहना पड़ेगा कि इन भोग-विषयों का कोई कारण नहीं । यह इसलिए कि भोग-विषयों की उत्पत्ति नियति आदि (किसी एक ही तथा अकेले ) तत्त्व से मानने पर उनमें परस्पर विभिन्नता मानना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता । टिप्पणी—कर्मवादी का आशय है कि जगत् की वस्तुएँ एक दूसरे से भिन्न हैं और इसलिए उनके कारण भी एक दूसरे से भिन्न होने चाहिए, लेकिन (कर्मवादी की समझ के अनुसार) कालवादी सभी वस्तुओं का कारण एक 'काल' को मानता है, स्वभाववादी एक 'स्वभाव' को तथा नियतिवादी एक नियति' को; इन सबके विपरीत, कर्मवादी वस्तुओं का कारण 'कर्मों' को मानता है जो एक दूसरे से भिन्न हैं । ठीक आगामी कारिकाओं में हम कर्मवादी को कालवाद, स्वभाववाद तथा नियतिवाद के बीच परस्पर सम्बन्ध भी प्रदर्शित करते पायेंगे । I नियतेर्नियतात्मत्वान्नियतानां समानता । तथाऽनियतभावे च बलात् स्यात् तद्विचित्रता ॥ १८९ ॥ यदि नियति एक ही रूप वाली है तब नियत (अर्थात् नियति से उत्पन्न) वस्तुएँ भी समान रूप वाली होनी चाहिए; और यदि नियति अनियत रूप वाली (अर्थात् परस्पर असमान वस्तुओं को जन्म दे सकने वाली ) है तब प्रस्तुत वादी को यह मानने के लिए विवश होना पड़ेगा कि यह नियति अनेक रूप वाली है । न च तन्मात्रभावादेर्युज्यतेऽस्या विचित्रता । तदन्यभेदकं मुक्त्वा सम्यग् न्यायाविरोधतः ॥ १८२ ॥ १. . क का प्रस्तावित पाठ: तदन्यत् भेदकं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy