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दूसरा स्तबक
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वस्तु दूसरी सभी वस्तुओं के स्वभाव वाली हो जानी चाहिए, जबकि सभी वस्तुएँ एक दूसरे के रूपवाली होने के कारण सभी प्रकार की क्रिया निष्फल सिद्ध होनी चाहिए" ।
न भोक्तृव्यतिरेकेण भोग्यं जगति वद्य । न चाकृतस्य भोगः स्यान्मुक्तानां भोगभावतः ॥ १७७॥
भोग्यं च विश्वं सत्त्वानां विधिना तेन तेन यत् । दृश्यतेऽध्यक्षमेवेदं तस्मात् तत् कर्मजं हि तत् ॥१७८॥
(कर्मवादियों का कहना है :) जगत् में भोक्ता के बिना भोगविषय कुछ नहीं और जिसने कुछ कर्म ( = कर्मबन्ध) नहीं किया वह किसी फल का भोक्ता कैसे ? सचमुच, यदि कर्म किये बिना भी फलभोग संभव है तब तो मोक्ष पा चुकने वाले व्यक्तियों को भी फलभोग का भागी होना चाहिए । और यह हम प्रत्यक्ष ही देखते हैं कि समूचे का समूचा विश्व प्राणियों का भोगविषय उसउस प्रकार से है; अतः निष्कर्ष यह निकला कि इस समूचे विश्व का कारण प्राणियों का कर्म है ।
टिप्पणी-संक्षेप में कर्मवादी का तर्क यह है कि विश्व की सभी वस्तुएँ प्राणियों का भोगविषय बनती है जबकि प्राणियों का भोग उनके पूर्वसंचित 'कर्मों' का परिणाम है— जिसका अर्थ यह हुआ कि विश्व की सभी वस्तुएँ प्राणियों के पूर्वसंचित 'कर्मों' का परिणाम है ।
न च तत् कर्मवैधुर्ये मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते । स्थाल्यादिभङ्गभावेन यत् क्वचिन्नोपपद्यते ॥ १७९ ॥
दूसरे, हम देखते हैं कि एक प्राणी के अनुकूल कर्म के अभाव में मूँग भी नहीं पकती, सचमुच कभी कभी ऐसा होता है कि ( सभी कारणसामग्री के उपस्थित रहने पर भी) थाली आदि के टूट जाने के फलस्वरूप मूँग पकने से रह जाती है ।
टिप्पणी- देखा जा सकता है कि कर्मवादी अपने मत के समर्थन का आधार इस वस्तुस्थिति को बना रहा है कि कभी कभी ऐसा भी होता है कि कोई कारणसामग्री उस कार्य को उत्पन्न करने में असफल सिद्ध होती है जिसकी
१. क का पाठ : भाग्यं ।
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