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शास्त्रवार्तासमुच्चय
यद् यदैव यतो यावत् तत् तदैव ततस्तथा । नियतं जायते न्यायात् क एतां बाधितुं क्षमः ॥१७४॥
जिस वस्तु को जिस समय जिस कारण से तथा जिस परिणाम में उत्पन्न होना होता है वह वस्तु उसी समय उसी कारण से तथा उसी परिमाण में नियतरूप से उत्पन्न होती है, ऐसी दशा में नियति के सिद्धान्त का युक्तिपूर्वक खंडन कौन सा वादी कर सकता ?
टिप्पणी प्रस्तुत कारिका से जाना जा सकता है कि नियतिवादी अपने मत के समर्थन में इस वस्तुस्थिति को आधार बना रहा है कि प्रत्येक कार्य किसी नियत कारण से, नियत परिपाटी द्वारा तथा नियत काल लेकर उत्पन्न होता है। वस्तुतः इस प्रकार रखा जाने पर नियतिवाद, कालवाद तथा स्वभाववाद का ही संमिश्रित रूप बन जाता है और उत्तरकालीन बौद्ध तार्किकों को हम सचमुच कहते पाते हैं कि 'प्रत्येक वस्तु देशनियत होती है, कालनियत होती है, स्वभावनियत होती है ।
न चर्ते नियति लोके मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते । तत्स्वभावादिभावेऽपि नासावनियता यतः ॥१७५॥
दूसरे हम देखते हैं कि अनुकूल नियत के बिना मूंग भी नहीं पकती, भले ही स्वभाव आदि (सभी कारण-सामग्री) उपस्थित क्यों न हो; सचमुच, मूंग का यह पकना अनियतरूप से तो नहीं होता ।।
अन्यथाऽनियतत्वेन सर्वाभाव: प्रसज्यते ।
अन्योन्यात्मकतापत्तेः क्रियावैफल्यमेव च ॥१७६॥
यदि ऐसा न हो (अर्थात् जगत् की वस्तुएँ नियतरूप वाली न हों) तब तो अनियत रूप वाली होने के कारण जगत् की सब वस्तुओं का अभाव ही. सिद्ध होता है (क्योंकि ये वस्तुएँ एक नियतरूप वाली होकर तथा एक नियत कारणसामग्री की सहायता से अस्तित्व में आती है) । दूसरे, उस दशा में जगत् की सभी वस्तुएँ एक दूसरे के रूप वाली होने के कारण सभी प्रकार की क्रिया निष्फल सिद्ध होनी चाहिए ।
टिप्पणी-यहाँ यशोविजयजी 'सर्वाभावः' के स्थान पर 'सर्वभावः' यह पाठ स्वीकार करते हैं; उस दशा में संबंधित कारिका-भाग का हिन्दी-अनुवाद होगा : "यदि ऐसा न हो....तब तो अनियतरूप वाली होने के कारण प्रत्येक
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