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दूसरा स्तबक
जगत् की सभी वस्तुएँ स्वतः ही अपने अपने स्वरूप में उस उस प्रकार से वर्तमान रहती हैं तथा अन्त में नष्ट हो जाती हैं, और वे यह सब करती हैं बिना किसी प्रकार की मनमानी किए ।
न विनेह स्वभावेन मुद्गपक्तिरपीष्यते । तथाकालादिभावेऽपि नाश्वमाषस्य सा यतः ॥१७१॥
दूसरे, हम देखते हैं कि अनुकूल स्वभाव से सम्पन्न हुए बिना मूंग भी नहीं पकती, भले काल आदि (सभी कारण-सामग्री) उपस्थित क्यों न हो, उदाहरण के लिए, मूंग का कुटका कभी नहीं पकता ।
टिप्पणी-यहाँ भी देखा जा सकता है कि स्वभाववादी अपने मत के समर्थन में इस वस्तुस्थिति को आधार बना रहा है कि एक वस्तु के स्वभाव का अध्ययन करने के बाद हम उसे विश्वासपूर्वक अपने उपयोग में ला सकते हैं । उदाहरण के लिए, यह जान लेने के बाद कि मूंग का स्वभाव पकने का है तथा कुटके स्वभाव नहीं पकने का हम विश्वासपूर्वक मूंग को पकाने का प्रयत्न कर सकते हैं तथा कुटके को पकाने के प्रयत्न से बच सकते हैं ।
अतत्स्वभावात् तद्भावेऽतिप्रसंगोऽनिवारितः । तुल्ये तत्र मृदः कुम्भो न पटादीत्ययुक्तिमत् ॥१७२॥
एक स्वभावविशेष वाले कारण के अभाव में भी एक कार्यविशेष की उत्पत्ति यदि संभव मानी जाए तब तो अवांछनीय परिणाम बरबस सिर आ पड़ेंगे। सचमुच, मिट्टी में यदि न घड़ा बनाने का स्वभाव है, न कपड़ा बनाने का तब वह कहना उचित नहीं जान पड़ता कि मिट्टी से घड़ा ही उत्पन्न होना चाहिए कपड़ा नहीं ।
नियतेनैव रूपेण सर्वे भावो भवन्ति यत् ।
ततो नियतिजा ह्येते तत्स्वरूपानुवेधतः ॥१७३॥
(नियतिवादियों का कहना है :) क्योंकि जगत् की सभी वस्तुएँ एक नियत रूपवाली होती हैं इसलिए उनका कारण नियति (नामक तत्त्वविशेष) को मानना चाहिए और वह इस आधार पर कि नियति का जो स्वरूप है (अर्थात् नियत रूपवाली होना) वह इन वस्तुओं में ओतप्रोत है ।
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