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दूसरा स्तबक
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उसी प्रकार जैसे कि एक रोग-पीडित चित्त (अपना ही अहित करने वाले कामों में प्रवृत्त प्रायः होता है) । (१) कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, कर्मवाद, कालादिसामग्रीवाद
कालादीनां च कर्तृत्वं मन्यन्तेऽन्ये प्रवादिनः ।
केवलानां तदन्ये तु मिथः सामण्यपेक्षया ॥१६४॥ - कुछ वादियों की मान्यता है कि जगत् की घटनाओं का असाधारण कारण काल, आदि में से यह या वह तत्त्व है, कुछ दूसरे वादियों की मान्यता है कि जगत् की घटनाओं का असाधारण कारण ये काल आदि तत्त्व परस्परसम्मिलित रूप से हैं ।
टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका से हरिभद्र कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद तथा कर्मवाद की चर्चा प्रारंभ करते हैं । कारिका के मूल शब्दों में काल आदि को 'कर्ता' कहा गया है लेकिन पूर्वापरसंदर्भ का विचार करने पर 'कर्ता' शब्द का अर्थ 'जगत की घटनाओं का असाधारण कारण' इतना ही सिद्ध होता है, क्योंकि हम देखेंगे कि कालवाद आदि मतों के अनुयायी काल आदि के अतिरिक्त वस्तुओं को भी उन उन कार्यों की कारण-सामग्री में लेने को तैयार हैं लेकिन उनका कहना होगा कि क्योंकि काल आदि के अभाव में उक्त वस्तुएँ उक्त कार्यों को जन्म नहीं देती पाई जाती इसलिए इन वस्तुओं का असाधारण (अथवा प्रधान) कारण काल आदि ही हैं ।
न कालव्यतिरेकेण गर्भबालशभादिकम् ।
यत् किञ्चिज्जायते लोके तदसौ कारणं किल ॥१६५॥
(कालवादियों का कहना है :) एक प्राणी का मातृगर्भ में प्रवेश करना, बाल्यावस्था प्राप्त करना, शुभ आदि प्रकार के अनुभवों का मेल करना—इनमें से कोई भी घटना काल के बिना नहीं घट सकती; अतः अवश्य काल ही सब घटनाओं का कारण है ।
टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका में 'बाल' के स्थान पर 'काल' यह पाठान्तर भी यशोविजयजी ने स्वीकार किया है; तब हिन्दी अनुवाद में 'बाल्यावस्था प्राप्त करना' के स्थान पर 'उन उन ऋतुओं आदि का होना' रखना पड़ेगा । वस्तुतः 'बाल' यह पाठ ही ग्रंथकार का अभीष्ट प्रतीत होता ।
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