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________________ ४६ ततो व्याधिनिवृत्त्यर्थं दाहः कार्यस्तु चोदिते । न ततोऽपि न दोषः स्यात् फलोद्देशेन चोदनात् ॥१५९॥ शास्त्रवार्त्तासमुच्चय ऐसी दशा में जब वैद्यकशास्त्र में कहा जाता है कि अमुक रोगविशेष से मुक्ति पाने के लिए दाह ( अर्थात् शरीरदाह) करना चाहिए तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह दाह दोषकारी (अर्थात् पीड़ाकारी) नहीं, बात केवल इतनी है कि यहाँ दाह का विधान एक फलविशेष को (अर्थात् उक्त रोग से मुक्ति को ) उद्देश्य बनाकर किया गया है । एवं तत्फलभावेऽपि चोदनातोऽपि सर्वथा । ध्रुवमौत्सर्गिको दोषो जायते फलचोदनात् ॥ १६०॥ इसी प्रकार हिंसा - संबंधी वैदिक विधान का पालन करने से भी किसी फलविशेष की प्राप्ति भले ही हो जाए लेकिन इस हिंसा से होने वाला मूलदोष अपने स्थान पर अवश्यमेव तथा ज्यों का त्यों बना रहता है; यहाँ भी कारण यही है कि हिंसा - संबन्धी वैदिक विधान उक्त फल को ध्यान में रखकर किया गया है 1 अन्येषामपि बुद्ध्यैवं दृष्टेष्टाभ्यां विरुद्धता । दर्शनीया कुशास्त्राणां ततश्च स्थितमित्यदः ॥१६१॥ इसी प्रकार दूसरे कुशास्त्रों का भी प्रत्यक्ष तथा अनुमान से विरुद्ध जाना एक पाठक अपनी बुद्धि से स्वयं सिद्ध करे । और ऐसी दशा में निम्नलिखित मान्यताएँ फलित होती हैं । क्लिष्टं हिंसाद्यनुष्ठानं न यत् तस्यान्यतो भवेत् । ततः कर्ता स एव स्यात् सर्वस्यैव हि कर्मणः ॥ १६२ ॥ क्योंकि एक आत्मा के हिंसा आदि दोषयुक्त आचरण का कारण उस आत्मा से अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता इसलिए आत्मा को ही अपने सब प्रकार के कर्मों (= कर्मबन्धों) का कर्ता होना चाहिए । अनादिकर्मयुक्तत्वात् तन्मोहात् संप्रवर्त्तते । अहितेऽप्यात्मनः प्रायो व्याधिपीडितचित्तवत् ॥ १६३॥ अतः वस्तुस्थिति यह है कि अनादि कर्म से संयुक्त होने के कारण एक आत्मा अपना ही अहित करने वाले कामों में मोहपूर्वक प्रवृत्त प्रायः होती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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