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________________ दूसरा स्तबक यदि कहा जाय कि कर्म-क्षय का कारण पराकाष्ठा प्राप्त अहिंसा आदि हैं तो इसका अर्थ होगा विरोधी सिद्धान्त को (अर्थात् हमारे जैन सिद्धान्त को) स्वीकार करना, और वह इसलिए कि महात्माओं ने कर्मक्षय का कारण अहिंसा आदि को बतलाया ही है। तदन्यहेतुसाध्यत्वे तत्स्वरूपमसंस्थितम् ।। अहेतुत्वे सदा भावोऽभावो वा स्यात् सदैव हि ॥१५५॥ यदि कहा जाए कि कर्मक्षय का कारण न हिंसा आदि हैं न अहिंसा आदि अपितु अन्य ही कुछ तो कर्मक्षय का कारण का स्वरूप अनिश्चित ही बना रहा । और यदि कहा जाए कि कर्मक्षय का कारण कुछ भी नहीं तो कर्मक्षय या तो सदा उपस्थित रहना चाहिए या कभी नहीं। मुक्तिः कर्मक्षयादिष्टा ज्ञानयोगफलं च सः । अहिंसादि च तद्धेतुरिति न्यायः सतां मतः ॥१५६॥ महात्माओं द्वारा स्वीकृत मन्तव्य तो यह है कि मोक्ष का कारण कर्मक्षय है, कर्मक्षय का कारण ज्ञानयोग (अर्थात् 'ज्ञानयोग' नामवाला पूर्व-वर्णित धर्माचरण), ज्ञानयोग का कारण अहिंसा आदि । एवं वेदविहिताऽपि हिंसाऽपायाय' तत्त्वतः । शास्त्रचोदितभावेऽपि वचनान्तरबाधनात् ॥१५७॥ इस प्रकार वेदविहित हिंसा भी (अर्थात् वह हिंसा भी जिसका आदेश वेद देता है) वस्तुतः अनर्थकारी सिद्ध होती है, भले ही उसका विधान (=आदेश) शास्त्र द्वारा क्यों न हुआ हो; ओर इसका कारण यह है कि प्रस्तुत शास्त्रविधान शास्त्र के ही दूसरे वचनों के विरुद्ध जाता है। न हिंस्यादिह भूतानि हिंसनं दोषकृन्मतम् । दाहवद् वैद्यके स्पष्टमुत्सर्गप्रतिषेधतः ॥१५८॥ 'मनुष्य को चाहिए कि वह प्राणियों की हिंसा न करें' इस वेदवाक्यं में हिंसा को स्पष्ट ही तथा एक निरपवाद नियम के अनुसार दोषकारी बतलाया गया है—उसी प्रकार जैसे कि वैद्यकशास्त्र में दाह (अर्थात् शरीरदाह) को दोषकारी (अर्थात् पीडाकारी) बतलाया गया है । १. ख का पाठ : हिंसा पापाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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