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संसारमोचकस्यापि हिंसा यद् धर्मसाधनम् । मुक्तिश्चास्ति ततस्तस्याप्येष दोषोऽनिवारितः ॥ १५० ॥
इसी प्रकार संसारमोचक का ( अर्थात् 'संसारमोचक' नाम वाले पंथ के अनुयायी का) यह कहना है कि हिंसा धर्म का साधन है तथा मोक्ष एक वास्तविकता है; उसका यह कथन भी पूर्वोक्त-दोष का (अर्थात् इस दोष का कि उसके मतानुसार नित्य-मोक्ष संभव नहीं रहता ) भागी अनिवार्य रूप से बनता है ।
मुक्ति कर्मक्षयादेव जायते नान्यतः क्वचित् । जन्मादिरहिता यत्तत् स एवात्र निरूप्यते ॥ १५१ ॥
शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
क्योंकि वस्तुस्थिति यह है कि जन्म आदि रहित मोक्ष का कारण कर्मक्षय ही है अन्य कुछ नहीं इसलिए अब हम इसका ही (अर्थात् कर्मक्षय का ही ) निरूपण प्रारंभ करते हैं ।
हिंसाद्युत्कर्षसाध्यो वा तद्विपर्ययजोऽपि वा । अन्यहेतुरहेतुर्वा स वै कर्मक्षयो ननु ॥ १५२ ॥
प्रश्न उठता है कि इस कर्म-क्षय का कारण क्या है : पराकाष्ठाप्राप्त हिंसा आदि, पराकाष्ठाप्राप्त अहिंसा आदि, अन्य कुछ, अथवा कुछ नहीं ।
हिंसाद्युत्कर्षसाध्यत्वे तदभावे न तत्स्थितिः ।
कर्मक्षयास्थितौ च स्यान्मुक्तानां मुक्तताक्षितिः १ ॥१५३॥
यदि कर्मक्षय का कारण पराकाष्ठाप्राप्त हिंसा आदि हैं तो इस हिंसा आदि के अभाव में कर्म-क्षय का अभाव होना चाहिए, और कर्म-क्षय के अभाव का अर्थ होगा मोक्ष प्राप्त कर चुकने वाले व्यक्तियों की मोक्ष- समाप्ति ।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि मोक्षावस्था में हिंसा आदि संभव नहीं, और ऐसी दशा में हिंसा आदि को कर्मक्षय का कारण मानने पर कहना पड़ेगा कि मोक्षावस्था में कर्म-क्षय नहीं रहता; लेकिन कर्म-क्षय नहीं रहने का (अर्थात् कर्म उपस्थित रहने का ) अर्थ है मोक्ष का नहीं रहना ।
तद्विपर्ययसाध्यत्वे परसिद्धान्तसंस्थितिः ।
कर्मक्षयः सतां यस्मादहिंसादिप्रसाधनः ॥ १५४॥
१. ख का पाठ : क्षतिः ।
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