________________
दूसरा स्तबक
४३
और इसका कारण यह है कि उक्त प्रकार की माध्यस्थ्य-भावना वस्तुतः विकसित होती है गम्य तथा अगम्य सभी प्रकार की वस्तुओं में प्रवृत्ति को यथाशक्ति रोकने से तथा विशुद्ध भावनाओं के (अर्थात् मैत्री आदि शुभ भावनाओं के) सतत अभ्यास से ।
यावदेवंविधं नैवं प्रवृत्तिस्तावदेव या ।।
साऽविशेषेण साध्वीति तस्योत्कर्षप्रसाधनात् ॥१४७॥
कहा जा सकता है : "जब तक ऐसी स्थिति न आए (अर्थात् जब तक गम्य तथा अ-गम्य सभी प्रकार की वस्तुओं में अ-प्रवृत्ति की स्थिति नहीं आए) तब तक गम्य तथा अगम्य सभी वस्तुओं में समान भाव से प्रवृत्ति करना ही उचित है और वह इसलिए कि इस प्रकार की प्रवृत्ति पराकाष्ठाप्राप्त माध्यस्थ्य-भावना का कारण बनती है" । इस पर हमारा उत्तर है :
नाप्रवृत्तेरियं हेतुः कुतश्चिदनिवर्त्तनात् ।
सर्वत्र भावाविच्छेदादन्यथाऽगम्यसंस्थितिः ॥१४८॥
उक्त प्रकार की प्रवृत्ति अ-प्रवृत्ति का कारण नहीं बन सकती, क्योंकि इस प्रकार की स्थिति में तो किसी भी वस्तु से निवृत्त नहीं हुआ जा रहा होता है और फलतः उस स्थिति में किसी भी वस्तु से संबन्धित इच्छा का नाश नहीं हो रहा होता है; और यदि कहा जाए कि बात ऐसी नहीं (अर्थात् वह कि इस स्थिति में भी कुछ वस्तुओं से निवृत्त हुआ जा रहा होता है) तो इसका अर्थ यह हुआ कि इस स्थिति में भी किन्हीं वस्तुओं को अगम्य माना जा रहा है (अर्थात् तो यह स्थिति गम्य-अगम्य वस्तुओं में समान भाव से प्रवृत्ति होने की स्थिति नहीं) ।
तज्चास्तु लोकशास्त्रोक्तं तत्रौदासीन्ययोगतः । संभाव्यते परं ह्येतद् भावशुद्धेर्महात्मनाम् ॥१४९॥
अतः जिन वस्तुओं को लोक तथा शास्त्र अगम्य मानते हैं उन्हें ही आगम्य मानना चाहिए, इस प्रकार की अगम्य वस्तुओं के प्रति उदासीनता का दृष्टिकोण महान् आत्माओं की मनःशुद्धि का कारण बनता है और इस मनःशुद्धि के फलस्वरूप उनमें उत्कृष्ट प्रकार की मध्यस्थ्य भावना का विकास संभव होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org