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शास्त्रवार्तासमुच्चय
पराकाष्ठाप्राप्त धर्मपालन (अर्थात् अगम्य-गमन आदि) के फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है; लेकिन (क्योंकि इस प्रकार का अर्थात् पराकाष्ठाप्राप्त अगम्यगमन आदि रूप-धर्म पालन मनुष्य के लिए संभव नहीं) इसका अर्थ यह हुआ कि प्रस्तुत शास्त्रों के मतानुसार मोक्ष का कोई कारण न होने के कारण नित्य (सदा के लिए रहने वाली) मोक्ष ही संभव नहीं। और नित्य मोक्ष की असंभावना प्रस्तुत शास्त्रों की एक अभीष्ट मान्यता के (अर्थात् इस मान्यता के कि नित्य मोक्ष का कारण अमुक क्रिया-कलाप हैं) विरुद्ध जाती है ।
टिप्पणी—यहाँ यशोविजयजी 'नित्यः' के स्थान पर 'अनित्यः' यह पाठ स्वीकार करके भी अर्थ करते हैं, उस दशा में कारिका के उत्तरार्ध का अनुवाद होगा... "लेकिन...." इसका अर्थ यह हुआ कि प्रस्तुत शास्त्रों के मतानुसार मोक्ष का कोई कारण न होने के कारण मोक्ष एक असंभव (कभी अस्तित्व में न आने वाली) वस्तु है । और मोक्ष को एक असंभव वस्तु मानना प्रस्तुत शास्त्रों की एक अभीष्ट मान्यता के (अर्थात् इस मान्यता के कि मोक्ष का कारण अमुक क्रियाकलाप हैं) विरुद्ध जाता है।
माध्यस्थ्यमेव तद्धेतुरगम्यगमनादिना । साध्यते तत् परं येन तेन दोषो न कश्चन ॥१४४॥
कहा जा सकता है: "मोक्ष-प्राप्ति का कारण तो माध्यस्थ्य भावना ही है लेकिन अगम्य-गमन आदि के द्वारा उत्कृष्ट प्रकार की माध्यस्थ-भावना का ही विकास किया जाता है; और जब वस्तुस्थिति ऐसी है तब हमारी उक्त मान्यता में (अर्थात् इस मान्यता में कि मोक्ष-प्राप्ति का कारण अगम्य-गमन आदि हैं) कोई दोष नहीं" । इस पर हमारा उत्तर है :
एतदप्युक्तिमात्रं यदगम्यगमनादिषु ।
तथाप्रवृत्तितो' युक्त्या माध्यस्थ्यं नोपपद्यते ॥१४५॥
उक्त बात भी केवल कहने भर के लिए है, क्योंकि युक्तिपूर्वक विचार करने पर प्रतीत होता है कि अगम्य-गमन आदि में इस प्रकार (अर्थात् गम्यअगम्य का भेद किए बिना) प्रवृत्त होने से माध्यस्थ्य-भावना विकसित नहीं होती।
अप्रवृत्त्यैव सर्वत्र यथासामर्थ्यभावतः । विशुद्धभावनाभ्यासात् तन्माध्यस्थ्यं परं यतः ॥१४६॥
१. क का पाठ : तथाऽप्रवृत्तितो ।
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