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________________ दूसरा स्तबक ४१ लेकिन) निश्चित ही इस पुरस्कार-प्राप्ति का कारण स्वयं ब्रह्महत्या नहीं (अपितु कोई पूर्वकृत धर्माचरण है) । यह सब बात शास्त्र द्वारा ही जानी जाती है । प्रतिपक्षागमानां च दृष्टेष्टाभ्यां विरोधतः । तथाऽनाप्तप्रणीतत्वादागमत्वं न युज्यते ॥१४०॥ और जहाँ तक हमारे अभीष्ट शास्त्र के प्रतिपक्षी शास्त्रों का प्रश्न है वे क्योंकि प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाणों के विरुद्ध जाते हैं और क्योंकि उनके रचयिता आप्त व्यक्ति नहीं इसलिए उनको शास्त्र मानना ही उचित नहीं। . टिप्पणी-यहाँ भी देखना सरल है कि किसी भी धर्म-सम्प्रदाय का एक अनुयायी अपने पूज्य ग्रंथों के संबन्ध में इस प्रकार की बात कह सकता है। दृष्टेष्टाभ्यां विरोधाच्च तेषां नाप्तप्रणीतता । नियमाद् गम्यते यस्मात् तदसावेव दर्श्यते ॥१४१॥ फिर क्योंकि उक्त शास्त्रों का प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाणों के विरुद्ध जाना नियमत: यह सिद्ध करता है कि उनके रचयिता आप्त व्यक्ति नहीं, अतः हम यही दिखलाने चलते हैं (अर्थात् यह कि ये शास्त्र प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाणों के विरुद्ध कैसे जाते हैं)। अगम्यगमनादीनां धर्मसाधनता क्वचित् । उक्ता लोकप्रसिद्धेन प्रत्यक्षेण विरुद्धयते ॥१४२॥ किन्हीं शास्त्रों में अगम्य गमन आदि को धर्म का साधन बतलाया गया है और यह बात लोकसिद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण के ही विरुद्ध जाती है। टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि अगम्य-गमन आदि उच्छंखलताएँ सभी की दृष्टि में पापाचरण हैं । 'अगम्यगमन' शब्द का अर्थ है 'न करने योग्य कामों को करना', आगे की चर्चा से स्पष्ट होगा कि इस शब्द का फलितार्थ है 'उन कामों को नहीं करना जिन्हें लोक तथा शास्त्र न करने योग्य मानते हैं। स्वधर्मोत्कर्षादेव' तथा मुक्तिरपीष्यते । हेत्वभावेन तद्भावो नित्य इष्टेन बाध्यते ॥१४३॥ इन शास्त्रों की एक अभीष्ट (अर्थात अनमित) मान्यता यह भी है कि १. क का प्रस्तावित पाठ : 'स्वधर्मोत्कर्षणादेव' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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