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शास्त्रवार्तासमुच्चय क्योंकि इस प्रकार की अतीन्द्रिय बातों के सम्बन्ध में निश्चित रूप से अभ्रान्त ज्ञान प्राप्त कराने वाला प्रायः कोई दूसरा प्रमाण एक साधारण व्यक्ति को उपलब्ध नहीं ।
यच्चोक्तं दुःखबाहुल्यदर्शनं तन्न साधकम् । क्वचित् तथोपलम्भेऽपि सर्वत्रादर्शनादिति ॥१३६॥
और जो यह कहा गया कि इस संसार में दुःख का बोलबाला होने के कारण सुख का कारण अशुभ कर्म-बन्ध नहीं वह अनुमान निर्दोष नहीं, क्योंकि यद्यपि हम इस संसार में कहीं कहीं दुःख का बोलबाला पाते हैं लेकिन हमें यह तो नहीं दीखता कि इस संसार में सर्वत्र दुःख का बोलबाला है (और वह इसलिए कि समूचे संसार का देख सकना ही हमारे लिए संभव नहीं) ।
सर्वत्र दर्शनं यस्य तद्वाक्यात् किं न साधनम् ।
साधनं तद् भवत्येवमागमात् 'तु न भिद्यते ॥१३७॥
पूछा जा सकता है कि जिस व्यक्ति को संसार की सभी वस्तुएँ दिखाई पड़ती हों उसके वचन के आधार पर हम उक्त बात क्यों नहीं सिद्ध कर सकते, इसके उत्तर में हमारा कहना है कि ऐसे व्यक्ति के वचन के आधार पर उक्त बात सिद्ध तो की जा सकती है लेकिन वह वचन शास्त्र से भिन्न कोई वस्तु न होगा ।
अशुभादप्यनुष्ठानात् सौख्यप्राप्तिश्च या क्वचित् । फलं विपाकविरसा सा तथाविधकर्मणः ॥१३८॥
और जो कहीं कहीं पापाचरण के फलस्वरूप सुख की प्राप्ति होती पाई जाती है उसका भी अन्तिम परिणाम दुःख रूप ही होता है तथा वह सुख किसी विशेष प्रकार के आचरण का फल है (अर्थात् वह किसी ऐसे पूर्वकृत धर्माचरण का फल है जो किसी पापाचरण के माध्यम से ही अपना फल देता है) ।
- ब्रह्महत्यानिदेशानुष्ठानाद् ग्रामादिलाभवत् ।
न पुनस्तत एवैतदागमादेव गम्यते ॥१३९॥
यह स्थिति वैसी ही है जैसी उस व्यक्ति के सम्मुख उपस्थित होती है जो किसी दूसरे व्यक्ति के आदेशानुसार ब्रह्महत्या करे तथा पुरस्कार में गाँव आदि की प्राप्ति करे; (यह पुरस्कार ब्रह्महत्या करने के पश्चात् अवश्य प्राप्त हुआ है
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