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दूसरा स्तबक
सर्वथा तर्क का आश्रय लेने वाले कुछ वादियों का इस सम्बन्ध में भी कहना है कि उक्त बात की सिद्धि प्रत्यक्ष - गर्भित अनुमान से होती है ।
तयाहुर्नाशुभात् सौख्यं तद्बाहुल्यप्रसंगतः । बहवः पापकर्माणो विरलाः शुभकारिणः ॥१३२॥
न चैतद् दृश्यते लोके दुःखबाहुल्यदर्शनात् । शुभात् सौख्यं ततः सिद्धमतोऽन्यच्चाप्यतोऽन्यतः ॥ १३३ ॥
उनका तर्क है : "सुख का कारण अशुभ कर्म-बन्ध नहीं, क्योंकि तब तो संसार में सुख का बोलबाला होना चाहिए और वह इसलिए कि संसार में पापाचरण करने वाले व्यक्तियों की संख्या बड़ी है तथा धर्माचरण करने वालों की थोड़ी । लेकिन संसार में ऐसा तो देखा नहीं जाता (अर्थात् संसार में सुख का बोलबाला तो देखा नहीं जाता ) और वह इसलिए कि यहाँ दुःख का बोलबाला है । अतः यह बात सिद्ध हो गई कि सुख का कारण शुभ कर्म बंध है तथा दुःख का कारण अशुभ कर्म-बंध |"
टिप्पणी- प्रस्तुत वादी की समझ है कि धर्माचरण का फल शुभ कर्मबंध है तथा शुभ कर्म-बंध का फल सुख, इसी प्रकार उसकी समझ है कि पापाचरण का फल अशुभ कर्म-बध है तथा अशुभ कर्म-बन्ध का फल दुःख । अतएव जब इससे पूछा जाता है कि सुख शुभ कर्म-बन्ध का ही फल क्यों अशुभ कर्मबन्ध का फल क्यों नहीं तब वह उत्तर देता है : 'अशुभ कर्म - बन्ध पापाचरण का फल है जबकि संसार में पापाचरण का बोलबाला है, और ऐसी दशा में यदि सुख को अशुभ कर्म-बन्ध का फल माना जाएगा तो संसार में सुख का बोलबाला होना चाहिए ( जबकि वस्तुतः संसार में दुःख का बोलबाला है ) " ।
अन्ये पुनरिदं श्राद्धा ब्रुवते आगमेन वै ।
शुभादेरेव सौख्यादि गम्यते नान्यतः क्वचित् ॥१३४॥
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कुछ दूसरे वादियों का, जो शास्त्र श्रद्धालु हैं, कहना है कि सुख आदि का कारण शुभ कर्म-बन्ध आदि ही हैं यह बात शास्त्र द्वारा ही जानी जाती है, किसी दूसरे प्रमाण द्वारा नहीं ।
अतीन्द्रियेषु भावेषु प्रायः एवंविधेषु यत् । छद्मस्थस्याविसंवादि मानमत्र न विद्यते ॥१३५॥
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