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शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
" अग्नि में शीतता है ही, और यदि कोई पूछे कि उस शीतता से जनित किसी फल का प्रत्यक्ष हमें क्यों नहीं होता तो हम उत्तर देगें कि बर्फ निकट रहने पर अग्नि शीतताजनित फलों का प्रत्यक्ष कराती ही है; यदि कोई पूछे कि ऐसा क्यों होता है तो हम उत्तर देंगे 'स्वभाववश' । इसी प्रकार बर्फ का भी यह स्वभाव ही है कि वह अग्नि निकट रहने पर जलन अवश्य ही उत्पन्न करता है । ऐसी दशा में यह कहना कहाँ तक उचित है कि अग्नि आदि में शीतता नहीं रहती ?" उत्तर में हम कहेंगे :
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व्यवस्थाऽभावतो ह्येवं या त्वबुद्धिरिहेदृशी ।
सा लोष्टादस्य यत् कार्यं तत् त्वत्तस्तत्स्वभावतः ॥ १२८ ॥
एवं सुबुद्धिशून्यत्वं भवतोऽपि प्रसज्यते । अस्तु चेत् को विवादो नो बुद्धिशून्येन सर्वथा ॥ १२९ ॥
यदि वस्तुओं के स्वभाव के सम्बन्ध में कोई सुनिश्चित नियम नहीं तब हम निम्नलिखित तर्क भी दे सकते हैं । "तुम्हारी ( अर्थात् प्रस्तुत वादी की ) जो ऐसी (अज्ञान भरी) बुद्धि है वह मिट्टी के ढेले के कारण है जबकि मिट्टी का ढेला· जो (चोट मारना आदि) काम करता है वह तुम्हारे कारण है, और यह सब कुछ है स्वभाववश । ऐसी दशा में आप भी ( अर्थात् प्रस्तुतवादी भी) सुबुद्धि से शून्य सिद्ध होते हैं (उसी प्रकार जैसे मिट्टी का ढेला) । कहा जा सकता है कि वस्तुस्थिति यदि ऐसी ही है तो रहे, लेकिन तब हम पूछेंगे कि एक सर्वथा बुद्धिशून्य व्यक्ति के साथ वाद-विवाद करना हमारे लिए कैसे सम्भव होगा ।"
अन्यस्त्वाह सिद्धेऽपि हिंसादिभ्योऽशुभादिके । शुभादेरेव सौख्यादि केन मानेन गम्यते ॥ १३०॥
इस सम्बन्ध में किसी दूसरे वादी का पूछना है कि यह बात सिद्ध होने पर भी कि हिंसा आदि (पापाचरण) से अशुभ कर्म-बंध आदि होता है यह बात किसे प्रमाण से जानी जाती है कि सुख आदि का कारण शुभ कर्म - बंध आदि ही हैं (अशुभ कर्म - बन्ध आदि नहीं) ।
अत्रापि ब्रुवते केचित् सर्वथा युक्तिवादिनः । प्रतीतिगर्भया युक्तया किलैतदवसीयते ॥१३१॥
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