SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा स्तबक ३७ . सुदूरमपि गत्वेह विहितासूपपत्तिषु । कः स्वभावागमावन्ते शरणं न प्रपद्यते ॥१२३॥ सचमुच, एक के पश्चात् दूसरा अनुमान देते देते बहुत दूर चला जाने वाला भी ऐसा कौन सा वादी है जो अन्त में जाकर 'स्वभाव' अथवा 'शास्त्र' का आश्रय नहीं लेता ? टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि प्रत्येक तार्किक अपनी तर्कसरणि का विस्तार करते करते कहीं न कहीं पहुँचकर यह कहने को अवश्य बाध्य होता है कि 'यह बात ऐसी है क्योंकि वस्तुओं का ऐसा स्वभाव ही है। अथवा यह कि 'यह बात ऐसी है कि क्योंकि वह अमुक प्रामाणिक ग्रंथ में कही गई है ।' प्रतिपक्षस्वभावेन प्रतिपक्षागमेन च । बाधित्वात् कथं ह्येतौ शरणं युक्तिवादिनाम् ॥१२४॥ पूछा जा सकता है कि जब ‘स्वभाव' सम्बन्धी बात का खंडन दूसरे 'स्वभाव' सम्बन्धी बात से हो जाता है तथा एक शास्त्र में कही गई बात का खंडन दूसरे शास्त्र में कही गई बात से हो जाता है तब तार्किक व्यक्तियों के लिए 'स्वभाव' तथा 'शास्त्र' का आश्रय लेना कहाँ तक उचित है । इस पर हमारा उत्तर है : प्रतीत्या बाध्यते यो यत् स्वभावो न स युज्यते । वस्तुनः कल्प्यमानोऽपि वह्यादेः शीततादिवत् ॥१२५॥ एक वस्तु के विषय में कही गई जिस 'स्वभाव' सम्बन्धी बात का खंडन प्रत्यक्ष द्वारा हो जाए वह स्वभाव उस वस्तु का हो नहीं सकता, चाहे वैसी कल्पना कोई कितनी ही क्यों न करे; उदाहरण के लिए, शीतता आदि अग्नि आदि का स्वभाव हो नहीं सकते ।। वनः शीतत्वमस्त्येव तत्कार्यं किं न दृश्यते । दृश्यते हि हिमासन्ने कथमित्थं स्वभावतः ॥१२६॥ हिमस्यापि स्वभावोऽयं नियमाद् वह्निसंनिधौ । करोति दाहमित्येवं वह्यादेः शीतता न किम् ॥१२७॥ [इस पर कोई कु-तार्किक निम्नलिखित आपत्ति उठा सकता है :] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy