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शास्त्रवार्तासमुच्चय
और न ही वस्तुओं के स्वरूप को परीक्षा किए बिना छोड़ देना उचित होगा; क्योंकि हमे भय है कि वस्तुओं के गुण-दोष का यथार्थ ज्ञान न होने की दशा में एक तार्किक व्यक्ति अपने को महा कठिन स्थिति में पाएगा ।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि अपने सभी क्रिया-कलाप में हम या तो गुणवान् वस्तुओं को प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रवृत्त होते हैं या दोषवान् वस्तुओं से बचने के उद्देश्य से, लेकिन यदि हमें यही पता न हो कि कौन सी वस्तु गुणवान् है तथा कौन सी दोषवान् तो हम किसी प्रकार के क्रियाकलाप में प्रवृत्त ही नहीं हो सकते ।
तस्माद् यथोदितात् सम्यगागमाख्यात् प्रमाणतः । हिंसादिभ्योऽशुभादीनि नियमोऽयं व्यवस्थितः ॥१२०॥
अतः उक्त स्वरूप वाले तथा 'उत्तम शास्त्र' नाम वाले प्रमाण से हमें इस नियम का निश्चित ज्ञान होता है कि हिंसा आदि से अशुभ आदि कर्मों का बंध होता है ।
क्लिष्टाद् हिंसाधनुष्ठानात् प्राप्तिः क्लिष्टस्य कर्मणः ।
यथाऽपथ्यभुजो व्याधेरक्लिष्टस्य विपर्ययात् ॥१२१॥
हिंसा आदि सदोष आचरण से एक व्यक्ति को सदोष (अर्थात् अशुभ) कर्म की प्राप्ति होती है-उसी प्रकार जैसे अपथ्य भोजन से रोग की; और इससे विपरीत (अर्थात् निर्दोष) आचरण से उसे निर्दोष (अर्थात् शुभ) कर्म की प्राप्ति होती है ।
स्वभाव एष जीवस्य यत् तथापरिणामभाक् ।
बध्यते पुण्य-पापाभ्यां माध्यस्थ्यात् तु विमुच्यते ॥१२२॥
यह एक जीव का स्वभाव ही है कि वह उन उन (सदोष-निर्दोष) अवस्थाओं को प्राप्त करने के फलस्वरूप शुभ अशुभ कर्मबंधन में बंधता है तथा अपने में माध्यस्थ्य भावना विकसित करने के फलस्वरूप कर्मबंधन से मुक्त होता है।
टिप्पणी-'अपने में माध्यस्थ्य भावना विकसित करने' का अर्थ है प्रत्येक काम को फल-कामना से रहित होकर करना ।
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