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दूसरा स्तबक
में परीक्षाक्षम ज्ञान कराने वाला पाने भर से यह कैसे निश्चय कर लिया जाए कि वह अन्य वस्तुओं के सम्बन्ध में भी ऐसा ही ज्ञान करा पाएगा तथा प्रमाणभूत सिद्ध होगा । इसके उत्तर में हमारा कहना है : . आगमैकत्वतस्तच्च वाक्यादेस्तुल्यतादिना ।
सुवृद्धसंप्रदायेन तथा पापक्षयेण च ॥११७॥
उक्त शास्त्र को एक वस्तुविशेष के सम्बन्ध परीक्षा-क्षम ज्ञान कराने वाला पाने पर उसे एक अन्य वस्तु के सम्बन्ध में भी ऐसा ही ज्ञान कराने वाला इसलिए मान लिया जाना चाहिए कि ये दोनों वस्तुएँ एक ही शास्त्र का विषयभूत है और वे दोनों एक ही शास्त्र का विषयभूत इसलिए है कि उन दोनों का वर्णन करने वाले वाक्य आदि एक सी विशेषताओं वाले हैं । दूसरे, उक्त बात इसलिए भी मान ली जानी चाहिए कि प्रस्तुत शास्त्र सुयोग्य गुरुपरंपरा द्वारा अध्ययन का विषय बनता चला आया है और इसलिए भी कि क्षीण-पाप व्यक्तियों को यह बात निश्चित रूप से सत्य प्रतीत होती है।
टिप्पणी-देखना सरल है कि किसी भी धर्म-सम्प्रदाय का एक अनुयायी अपने पूज्य ग्रंथो को प्रस्तुत विशेषताओं से सम्पन्न मान सकता है तथा आग्रह कर सकता है कि दूसरे सम्प्रदायों के पूज्य ग्रन्थ इन विशेषताओं से शून्य हैं।
अन्यथा वस्तुतत्त्वस्य परीक्षैव न युज्यते ।।
आशङ्का सर्वगा यस्मात् छद्मस्थस्योपजायते ॥११८॥
यदि ऐसा सब कुछ न हो तब तो वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप के सम्बन्ध में परीक्षा का किया जाना ही उचित न ठहरता और वह इसलिए कि एक साधारण व्यक्ति का मन प्रत्येक वस्तु के स्वरूप के सम्बन्ध में शंकाशील हुआ करता है ।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि कोई साधारण व्यक्ति यदि वस्तु-जगत् के—जिसमें इन्द्रियगोचर तथा इन्द्रियातीत दोनों प्रकार की वस्तुओं का समावेश है—यथार्थ स्वरूप निरूपण की दिशा में प्रवृत्त होता है तथा हो सकता है तो अपने पूज्य शास्त्रीय ग्रन्थों को आधार बनाकर ही ।
अपरीक्षाऽपि नो युक्ता गुणदोषाविवेकतः । - महत् संकटमायातमाशङ्के न्यायवादिनः ॥११९॥
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