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दूसरा स्तबक
(१) पुण्य, पाप तथा मोक्ष से संबंधित कुछ प्रश्न हिंसादिभ्योऽशुभं कर्म तदन्येभ्यश्च तच्छुभम् ।
जायते नियमो मानात् कुतोऽयमिति नापरे ॥११३॥
हिंसा आदि (पापाचरण) से अशुभ कर्मों का तथा अहिंसा आदि (धर्माचरण) से शुभ कर्मों का बंध होता है इस नियम का ज्ञान कौन सा प्रमाण कराता है ऐसा कुछ वादियों का प्रश्न है ।।
आगमाख्यात् तदन्ये तु तच्च दृष्टाद्यबाधितम् । सर्वार्थविषयं नित्यं व्यक्तार्थं परमात्मना ॥११४॥
इस पर कुछ दूसरे वादियों का उत्तर है कि उक्त नियम का ज्ञान कराने वाला प्रमाण शास्त्र है और वह शास्त्र ऐसा है जिसका प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के साथ विरोध नहीं, सभी वस्तुएँ जिसका विषयभूत हैं, जो नित्य है, तथा जिसका प्रतिपादन परमात्मा ने किया ।
टिप्पणी-'परमात्मा' शब्द के सम्बन्ध में १११ की टिप्पणी द्रष्टव्य है।
चन्द्रसूर्योपरागादेस्ततः संवाददर्शनात् । तस्याप्रत्यक्षेऽपि पापादौ न प्रामाण्यं न युज्यते ॥११५॥
क्योंकि यह शास्त्र चन्द्र ग्रहण, सूर्य-ग्रहण आदि के सम्बन्ध में ऐसा ज्ञान करा पाता है जो परीक्षा करने पर खरा उतरता है इसलिए यह सोचना असंगत नहीं कि वह प्रत्यक्ष-प्रमाण के अविषयभूत पाप आदि के सम्बन्ध में भी प्रामाणिक ज्ञान करा पाएगा ।
यदि नाम क्वचिद् दृष्टः संवादोऽन्यत्र वस्तुनि । तद्भावस्तस्य तत्त्वं वा कथं समवसीयते ? ॥११६॥ पूछा जा सकता है कि उक्त शास्त्र को किसी एक वस्तु के सम्बन्ध
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