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पहला स्तबक
है ही; अतः विद्वानों ने आत्मा तथा अदृष्ट के सिद्धान्त को ही एक तात्त्विक वाद घोषित किया है ।
(५) भूतचैतन्यवाद - खंडन का उपसंहार
लोकायतमतं प्राज्ञैर्ज्ञेयं पापौघकारणम् ।
इत्थं तत्त्वविलोमं यत् तन्न ज्ञानविवर्धनम् ॥११०॥
जहाँ तक लोकायत सिद्धान्त का प्रश्न है बुद्धिमानों को चाहिए कि वे उसे पाप-पुंज का कारण समझें । और क्योंकि वह पूर्वोक्त कारणों से वस्तुस्थिति के प्रतिकूल जाता है वह ज्ञान का बढ़ाने वाला नहीं ।
इन्द्रप्रतारणायेदं चक्रे किल बृहस्पतिः ।
अदोऽपि युक्तिशून्यं यन्नेत्थमिन्द्रः प्रतार्यते ॥ १११॥
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किसी का कहना है कि लोकायत सिद्धान्त का प्रतिपादन बृहस्पति ने इन्द्र को धोखे में डालने के उद्देश्य से किया था, लेकिन ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि इन्द्र को इस प्रकार से धोखे में नहीं डाला जा सकता ।
टिप्पणी- प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र का इंगित ब्राह्मण - परम्परा में प्रचलित एक पौराणिक आख्यान की ओर है; उनकी अपनी समझ है कि इस आख्यान में वर्णित घटना कोई ऐतिहासिक सत्य नहीं ।
तस्माद् दुष्टाशयकरं क्लिष्टसत्त्वविचिन्तितम् । पापश्रुतं सदा धीरैर्वर्ज्यं नास्तिकदर्शनम् ॥ ११२ ॥
अतः धीर व्यक्तियों को चाहिए कि वे नास्तिक दर्शन से दूर रहे— उस नास्तिक दर्शन से जो दुष्ट बुद्धि को जन्म देने वाला है, जिसका प्रतिपादन आचार-शून्य व्यक्तियों ने किया है, जिसको सुनने से भी पाप होता है ।
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