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शास्त्रवार्तासमुच्चय कारण सचमुच हैं तो जहाँ जहाँ ये शक्ति आदि उपस्थित हैं वहाँ वहाँ बंध उपस्थित होना चाहिए, तथा जहाँ-जहाँ वे अनुपस्थित हैं वहाँ वहाँ बंध अनुपस्थित होना चाहिए । लेकिन होता यह है कि कहीं कहीं इन शक्ति आदि की उपस्थिति में भी बंध उपस्थित नहीं रहता तथा कहीं कहीं इनकी अनुपस्थिति में भी बंध उपस्थित रहता हैं ।
तस्मात् तदात्मनो भिन्नं सच्चित्रं चात्मयोगि च ।
अदृष्टमवगन्तव्यं तस्य शक्त्यादिसाधकम् ॥१०६॥
अतः आत्मा में शक्ति आदि की संभावना सिद्ध करने वाले तत्त्व के रूप में अदृष्ट की सत्ता स्वीकार की ही जानी चाहिए—उस अदृष्ट की जो आत्मा से भिन्न है, वास्तविक है, अनेक प्रकार का है, तथा आत्मा के साथ संबन्ध में आने वाला है।
अदृष्टं कर्म संस्काराः पुण्यापुण्ये शुभाशुभे । धर्माधर्मी तथा पाशः पर्यायास्तस्य कीर्तिताः ॥१०७॥
'अदृष्ट' 'कर्म' 'संस्कार' 'पुण्य-अपुण्य' 'शुभ-अशुभ' 'धर्म-अधर्म' 'पाश' के सभी शब्द परस्पर पर्यायवाची हैं ।
टिप्पणी-टीकाकारों की सूचनानुसार 'अदृष्ट' शब्द का प्रयोग वैशेषिक करते हैं, 'कर्म' शब्द का जैन, 'संस्कार:' शब्द का बौद्ध, 'पुण्य-अपुण्य' इस शब्द-द्वन्द्व का वेदवादी, 'शुभ-अशुभ' इस शब्द-द्वन्द का गणक, 'धर्म-अधर्म' इस शब्द-द्वन्द्व का सांख्य, तथा 'पाश' शब्द का शैव ।
हेतवोऽस्य समाख्याताः पूर्वं हिंसाऽनृतादयः ।
तद्वान् संयुज्यते तेन विचित्रफलदायिना ॥१०८॥
इस अदृष्ट का कारण है हिंसा, असत्य आदि जिन्हें हम पहले ही गिना चके; इन्हीं हिंसा आदि से युक्त व्यक्ति को अदृष्ट की प्राप्ति होती है और यह अदृष्ट उसे विभिन्न फलों की प्राप्ति कराता है ।
नैवं दृष्टेष्टबाधा यत् सिद्धिश्चास्यानिवारिता ।
तदेनमेव विद्वांसस्तत्त्ववादं प्रचक्षते ॥१०९॥
उक्त प्रकार से आत्मा तथा अदृष्ट की सत्ता स्वीकार करने पर न प्रत्यक्ष के साथ विरोध आता है न अनुमान के साथ और उनकी सत्ता-सिद्धि युक्तिसंगत
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