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पहला स्तबक
टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका से कर्म को आत्मा की वासना (= संस्कार) मानने वाले सिद्धान्त का खंडन प्रारंभ होता है ।
बोधमात्रातिरिक्तं तद् वासकं किञ्चिदिष्यताम् । मुख्यं तदेव वः कर्म न युक्ता वासनाऽन्यथा ॥१०३॥
अतः प्रस्तुत वादी को चाहिए कि वह ज्ञानमात्र से अतिरिक्त (अर्थात् चेतनतत्त्व से अतिरिक्त) किसी दूसरे ऐसे वास्तविक तत्त्व का भी अस्तित्व स्वीकार करे जो ज्ञान को वासना-युक्त बना सके; यही (चेतनातिरिक्त) तत्त्व (हमारा अभीष्ट) कर्म है और इसके बिना चेतन-तत्त्व में वासना का जन्म संभव न होगा ।
बोधमात्रस्य तद्भावे नास्ति ज्ञानमवासितम् । ततोऽमुक्तिः सदैव स्याद् वैशिष्टयं केवलस्य न ॥१०४॥
यदि ज्ञानमात्र को वासना युक्त मान लिया जाए तो वासना-रहित ज्ञान कोई रहेगा ही नहीं और इसका अर्थ होगा कि किसी को कभी मोक्ष-प्राप्ति होगी ही नही । और जब ज्ञान को ही एकमात्र वास्तविक तत्त्व माना जा रहा है तब यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं कि कुछ ज्ञानविशेष वासना-युक्त हुआ करते हैं (तथा अन्य ज्ञानविशेष वासना विनिर्मुक्त) ।
टिप्पणी-हरिभद्र अपने प्रस्तुत प्रतिद्वन्द्वी के संबंध में कह रहे हैं कि वह ज्ञान को ही वास्तविक तत्त्व मानता है लेकिन इसका अनिवार्य अर्थ यह नहीं कि यह प्रतिद्वन्द्वी विज्ञानाद्वैतवादी है, हमारा काम यह मानने से भी चल जाएगा कि यह प्रतिद्वन्द्वी चेतन-तत्त्व का किसी चेतनेतर तत्त्व के साथ संयोग संभव नहीं मानता ।
एवं शक्त्यादिपक्षोऽयं घटते नोपपत्तितः ।
बन्धान्यूनातिरिक्तत्वे तद्भावानुपपत्तितः ॥१०५॥
इस प्रकार शक्ति आदि के सिद्धान्त भी युक्तियुक्त नहीं ठहरते क्योंकि ये शक्ति आदि या तो बंध (अर्थात् पुनर्जन्मचक्र) की दशा में भी वर्तमान नहीं रहती या वे बंध की दशा के बिना भी वर्तमान रहती हैं, और दोनों ही स्थितियों में उनकी कल्पना की सहायता से बंध का स्वरूप-निरूपण संभव नहीं ।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि यदि शक्ति आदि बंध का १. ख का पाठ : ततो मुक्तिः ।
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