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________________ ३० शास्त्रवार्तासमुच्चय अस्त्येव सा सदा किन्तु क्रियया व्यज्यते परम् । आत्ममात्रस्थिताया न तस्या व्यक्तिः कदाचन ॥१९॥ कहा जा सकता है कि उक्त शक्ति एक आत्मा में रहती तो सदा ही है लेकिन इस आत्मा की क्रिया के फलस्वरूप वह अभिव्यक्त भर होती है, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि यदि यह शक्ति एक शुद्ध आत्मा में रहती है (अर्थात् एक ऐसी आत्मा में जो किसी विजातीय तत्त्व द्वारा प्रतिहतशक्ति नहीं) तो उसके अभिव्यक्त होने का कभी प्रश्न ही नहीं उठेगा (और वह इसलिए कि उस दशा में इस आत्मा की प्रत्येक शक्ति सदा प्रकट बनी रहनी चाहिए) । तदन्यावरणाभावाद् भावे वाऽस्यैव कर्मता । तन्निराकरणाद् व्यक्तिरिति तद्भेदसंस्थितिः ॥१०॥ यदि कहा जाए कि उक्त शक्ति की एक आत्मा में अभिव्यक्ति किसी विजातीय तत्त्व विशेष का आवरण हट जाने के फलस्वरूप होती है तो हमारा उत्तर होगा कि आत्मा का आवरणभूत यही विजातीय तत्त्व तो कर्म है, और यदि कर्म के हटने के फलस्वरूप आत्मा में उक्त शक्ति की अभिव्यक्ति होती है तो यह सिद्ध हो ही गया कि कर्म आत्मा से विजातीय कोई स्वतंत्र तत्त्व है । पापं तद्भिन्नमेवास्तु क्रियान्तरनिबन्धनम् ।। . एवमिष्टक्रियाजन्यं पुण्यं किमिति नेक्ष्यते ॥१०१॥ कहा जा सकता है कि वैध से अतिरिक्त (अर्थात् निषिद्ध) आचरण के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले अशुभ कर्म को आत्मा से भिन्न मान लेना चाहिए, लेकिन इस पर हमारा पूछना होगा कि वैध आचरण के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले शुभ कर्म को भी आत्मा से भिन्न क्यों न मान लिया जाए। वासनाऽप्यन्यसंबन्धं विना नैवोपपद्यते ।। पुष्पादिगन्धवैकल्ये तिलादौ नेक्ष्यते' यतः ॥१०२॥ एक आत्मा में वासना का जन्म भी इस आत्मा का किसी विजातीय तत्त्व से संबंध माने बिना युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि हम देखते हैं कि (तेल बनाने के लिए काम में लाए गए) तिल आदि भी पुष्प आदि की गंध का संबंध हुए बिना वासना युक्त (=वास-युक्त=गंध युक्त) नहीं बनते ।। १. ख का पाठ : नेष्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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