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पहला स्तबक
शक्तिरूपं तदन्ये तु सूरयः संप्रचक्षते ।
अन्ये तु वासनारूपं विचित्रफलदं मतम् ॥९६॥
प्राणियों को (एक ही काम से) परस्पर भिन्न फल उक्त रूप से दिलाने 'वाले इस ('कर्म' अथवा 'अदृष्ट' नाम वाले ) तत्त्व को कुछ विद्वान् आत्मा की शक्ति रूप मानते हैं और कुछ वासना रूप ( संस्कार रूप )
।
अन्ये त्वभिदधत्यत्र स्वरूपनियतस्य वै । कर्त्तुर्विनाऽन्यसंबन्धं शक्तिराकस्मिकी कुतः ॥ ९७॥
लेकिन कुछ दूसरे ही विद्वानों की आशंका है कि एक निश्चित स्वरूप वाले कर्ता में (अर्थात् आत्मा में) किसी शक्ति का आकस्मिक जन्म किसी विजातीय तत्त्व का संबन्ध हुए बिना कैसे संभव है ? |
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टिप्पणी- प्रस्तुत कारिका से कर्म को आत्मा की शक्ति मानने वाले सिद्धान्त का खण्डन प्रारम्भ होता है ।
तत्क्रियायोगतः सा चेत् तदपुष्टौ न युज्यते । तदन्ययोगाभावे च पुष्टिरस्य कथं भवेत् ॥९८॥
कहा जा सकता है कि एक आत्मा में उक्त शक्ति का जन्म इस आत्मा की किसी क्रिया (अर्थात् उसके किसी जीवन - व्यापार) के फलस्वरूप होगा, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि इस आत्मा में किसी नूतन विशेषता के आए बिना उक्त क्रिया - जनित शक्ति का जन्म संभव नहीं और किसी विजातीय तत्त्व का संबन्ध हुए बिना इस आत्मा में कोई नूतन विशेषता आएगी कैसे ?
टिप्पणी-- हरिभद्र का आशय यह है कि किसी आत्मा का कोई वर्तमान जीवन - व्यापार इस आत्मा में किसी नूतन विशेषता को लाए बिना उसमें किसी ऐसी शक्ति का समावेश नहीं कर सकता जो आगामी काल में इस आत्मा को किसी विशेष प्रकार का जीवन-अनुभव करा सके; साथ ही उनकी समझ है कि एक आत्मा में कोई नूतन विशेषता तब तक नहीं आ सकती जब तक उसका किसी विजातीय तत्त्व के साथ संयोग न हो । इस सम्बन्ध में यशोविजयजी का दृष्टान्त है कि मिट्टी के गीला - चिकना हुए बिना उसमें घड़ा बनाने की शक्ति नहीं आ सकती जबकि मिट्टी के गीला - चिकना होने का कारण इस मिट्टी का किन्हीं विशेष प्रकार के नए परमाणुओं के साथ होने वाला संयोग है ।
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