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________________ २८ शास्त्रवार्तासमुच्चय तथा तुल्येऽपि चारम्भे सदुपायेऽपि यो नृणाम् । फलभेदः स नो युक्तो युक्त्या हेत्वन्तरं विना ॥१२॥ इस प्रकार एक ही काम को-और उसे भी उचित उपायों का आश्रय लेकर-करने वाले (अलग अलग) मनुष्यों को जो इस काम से अलग अलग फल मिला करता है वह युक्तिसंगत न होगा, यदि इस फल का कारण (उक्त उपायों के अतिरिक्त) अन्य कुछ भी न हो ।। तस्मादवश्यमेष्टव्यं तत्र हेत्वन्तरं परैः । तदेवादृष्टमित्याहुरन्ये शास्त्रकृतश्रमाः ॥१३॥ अतः एक मनुष्य के द्वारा किए गए काम से मिलने वाले फल का कोई अन्य भी कारण (अर्थात् उचित उपायों से अतिरिक्त कोइ अन्य भी कारण) हमारे (भूतचैतन्यवादी) विरोधियों को मानना ही चाहिए, और दूसरे (अर्थात् भूतचैतन्यवादियों से अतिरिक्त) शास्त्राभ्यासियों का कहना है कि इसी अन्य कारण का नाम “अदृष्ट" है । भूतानां तत्स्वभावत्वादयमित्यप्यनुत्तरम् । न भूतात्मक एवात्मेत्येतदत्र निदर्शितम् ॥१४॥ इस संबंध में यह उत्तर देना उचित न होगा कि उक्त फल-भेद का कारण भूतों का ही अमुक प्रकार का स्वभाव है, क्योंकि हम अभी दिखा कर चुके हैं कि आत्मा स्वयं भूतात्मक नहीं । कर्मणो भौतिकत्वेन यद्वैतदपि साम्प्रतम् । आत्मनो व्यतिरिक्तं तत् चित्रभावं यतो मतम् ॥१५॥ अथवा यह मत भी एक प्रकार से ठीक ही है और वह इसलिए कि कर्म एक भौतिक तत्त्व है । सचमुच एक आत्मा को विभिन्न रूपों की प्राप्ति जिस तत्त्व के फलस्वरूप प्राप्त होती है वह (अर्थात् कर्मनामान्तर 'अदृष्ट') आत्मा से अतिरिक्त (अतः भौतिक) ही होना चाहिए । टिप्पणी-इस कारिका में हम देखते हैं कि हरिभद्र भौतिकवादी को कुछ छूट यह मानकर देना चाहते हैं कि कर्म एक भौतिक तत्त्व है, लेकिन स्पष्ट ही इस छूट का उस भौतिकवादी के निकट कोई महत्त्व नहीं जो न आत्मा की सत्ता में विश्वास रखता है न पुनर्जन्म की संभावना में। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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