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पहला स्तबक
सामान्यतः मन को क्षणिक कहा जाता है और वह इस आधार पर कि एक प्राणी की प्रत्येक मानसिक अवस्था क्षणिक हुआ करती है। लेकिन कुछ बौद्ध दार्शनिकों ने 'आलयविज्ञान' नाम से एक ऐसे चेतनतत्त्व की कल्पना भी की है जो किसी रूप में सदास्थायी है । इस 'आलयविज्ञान' की कल्पना को ही ध्यान में रखकर हरिभद्र ने बौद्ध से प्रस्तुत बात कहलाई है ।
यदि नित्यं तदाऽऽत्मैव संज्ञाभेदोऽत्र केवलम् । अथानित्यं ततश्चेदं न यथोक्तात्मलक्षणम् ॥८९॥
लेकिन यदि उक्त मन नित्य है तब तो वह आत्मा ही हुआ तथा आत्मा से उसका भेद नाममात्र का है; और यदि वह अनित्य है तब वह वही आत्मा नहीं हुआ जिसका लक्षण अभी ऊपर किया गया है ।
यः कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्त्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणः ॥९०॥
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जो अनेक प्रकार के कर्म करता है, उन कर्मों का फल भोगता है, जन्म-जन्मान्तर ग्रहण करता है, तथा मोक्ष पाता है वही आत्मा है और कोई दूसरी वस्तु आत्मा नहीं ।
टिप्पणी- - प्रस्तुत कारिका में आत्मा को 'अनेक प्रकार के कर्म करने वाला' कहा गया है, लेकिन इसका अर्थ किया जाना चाहिये 'अनेक प्रकार के अपने शुभ अशुभ जीवन - व्यापारों के फलस्वरूप अनेक प्रकार के शुभ अशुभ "कर्मों" का संचय करने वाला' अर्थात् यहाँ 'कर्म' शब्द का अर्थ जीवनव्यापार नहीं करके वह तत्त्व किया जाना चाहिए जिसे एक आत्मा अपने जीवन - व्यापारों के फलस्वरूप अर्जित करती है तथा जो इस आत्मा को आगामी जन्म-जन्मान्तरों में प्राप्त होने वाले जीवन-अनुभवों का कारण बनता है ।
आत्मत्वेनाविशिष्टस्य वैचित्र्यं तस्य यद्वशात् ।
नरादिरूपं तच्चित्रमदृष्टं कर्मसंज्ञितम् ॥९१॥
यद्यपि सभी आत्माओं में आत्मापन समान रूप से वर्तमान है फिर भी कोई आत्मा मनुष्यरूपधारी है कोई अन्य रूपधारी यह परिस्थिति जिस तत्त्व के फलस्वरूप उत्पन्न होती है वही आत्माओं का अपना अपना अदृष्ट - नामान्तर कर्म है।
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