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शास्त्रवार्तासमुच्चय
की ज्ञानानुभूति के समय भी ('दे रहा हूँ' इस ज्ञानानुभूति के साथ ही साथ) 'मैं हूँ' यह ज्ञानानुभूति होती ही है ।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह प्रतीत होता है कि कल्पित ज्ञान का विषय एक समय में एक ही वस्तु हो सकती है एकाधिक वस्तुएँ नहीं; ऐसी दशा में जो दार्शनिक ज्ञानमात्र को कल्पित ज्ञान घोषित करते हैं उन्हें भी 'मैं दे रहा हूँ' इस ज्ञान के दो विषयों में से-अर्थात् 'मैं' तथा 'दे रहा हूँ' में से-एक को ही-अर्थात् 'दे रहा हूँ' को ही—कल्पित ज्ञान का विषय मानकर चलना चाहिए ।
आत्मनाऽऽत्मग्रहे तस्य तत्स्वभावत्वयोगतः । सदैवाग्रहणं ह्येवं विज्ञेयं कर्मदोषतः ॥८६॥
इस प्रकार जब यह सिद्ध हो गया कि अपने द्वारा अपने को जानना आत्मा का स्वभाव ही है तब यह भी समझ लेना चाहिए कि यदि एक आत्मा अपने को सब समय नहीं जानती तो इसका कारण उस आत्मा का कर्मदोष है।
अतः प्रत्यक्षसंसिद्धः सर्वप्राणभृतामयम् । स्वयंज्योतिः सदैवात्मा तथा वेदेऽपि पठ्यते ॥४७॥
ऐसी दशा में यह सर्वदा स्वयंप्रकाश आत्मा प्रत्येक प्राणी की प्रत्यक्षानुभूति का विषय सिद्ध होती है; यही बात वेदों में भी कही गई है ।
टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका में निर्दिष्ट वेद-वचनों के उदाहरण रूप में टीकाकारों ने 'आत्मा स्वयंज्योतिरेवायं पुरुषः' इस उपनिषद् वाक्य को उद्धृत किया है।
(४) आत्मा तथा कर्म के सम्बन्ध में मतमतान्तर अत्रापि वर्णयन्त्येके सौगताः कृतबुद्धयः । क्लिष्टं मनोऽस्ति यन्नित्यं तद्यथोक्तात्मलक्षणम् ॥८८॥
इस संबंध में भी कुछ धीमान् बौद्धों का कहना है कि अभी ऊपर जिस आत्मा का लक्षण किया गया है वह वस्तुतः क्लेश युक्त नित्य मन ही है।
टिप्पणी-बौद्ध परम्परा में चेतनत्व को 'मन' नाम से जाना गया है ।
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