________________
पहला स्तबक
२५ मान लिए जाएंगे तब तो सभी प्रत्यक्षज्ञानों को अर्थात् बाह्यार्थविषयक प्रत्यक्ष ज्ञानों को भी) भ्रान्त मानना पड़ेगा और वह इसलिए कि कुछ प्रत्यक्षज्ञान भ्रान्त होते ही हैं । युक्ति दी जा सकती है कि प्रत्यक्षाभास (अर्थात् भ्रान्त प्रत्यक्षज्ञान) अन्य ही कुछ हुआ करता है और वह इसलिए कि प्रत्यक्षाभास एक अ-यथार्थ ज्ञान होता है एक प्रामाणिक ज्ञान नहीं, इस पर हमारा उत्तर होगा कि यह सब बात 'मैं'-संबंधी ज्ञान पर भी लागू होती है (अर्थात् 'मैं'-संबंधी ज्ञान भी भ्रान्त तथा अ-भ्रान्त दो प्रकार का होता है) । अतः अन्य अ-भ्रान्त प्रत्यक्षज्ञानों की भाँति 'मैं'-संबंधी अ-भ्रान्त ज्ञान को भी प्रामाणिक प्रत्यक्ष ज्ञान की कोटि में रखना चाहिए ।
गुर्वी मे तनुरित्यादौ भेदप्रत्ययदर्शनात् ।।
भ्रान्तताऽभिमतस्यैव सा युक्ता नेतरस्य तु ॥८३॥
'मेरा शरीर भारी है' इस तथा इस प्रकार की ज्ञानानुभूति के समय हमें 'मैं' तथा शरीर के बीच भेद का ज्ञान होता है, और इस कारण से 'मैं भारी हूँ' इस ज्ञान को तो भ्रान्त मानना युक्तिसंगत है लेकिन 'मैं हूँ' इस ज्ञान को भ्रान्त मानना युक्तिसंगत नहीं ।
आत्मनाऽऽत्मग्रहोऽप्यस्य तथाऽनुभवसिद्धितः । तस्यैव तत्स्वभावत्वात् न तु युक्त्या न युज्यते ॥८४॥
और आत्मा का अपने ही द्वारा अपने को जानना भी युक्ति हीन नहीं, क्योंकि यह बात अनुभवसिद्ध है जबकि अपने द्वारा अपने को जानना आत्मा का ही स्वभाव है।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि जिस वस्तु को हम 'अपने द्वारा अपने को जानने वाली' रूप में अनुभव करते हैं वही वस्तु आत्मा है ।
न च बुद्धिविशेषोऽयमहंकारः प्रकल्प्यते ।
दानादिबुद्धिकालेऽपि तथाऽहंकारवेदनात् ॥८५॥
'मैं हूँ' इस ज्ञान को एक कल्पित ज्ञानविशेष भी नहीं कहा जा सकता (जैसे कि 'यह नीली वस्तु है' इस ज्ञान को एक कल्पित ज्ञानविशेष कदाचित् कहा भी जा सके) और वह इसलिए कि मैं दे रहा हूँ इस तथा इस प्रकार
१. ख का पाठ : स्यैवास्य ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org