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शास्त्रवार्तासमुच्चय अंधकार प्रकाश की ही भाँति एक सत्ताशील वस्तु है)।
एवं चैतन्यवानात्मा सिद्धः सततभावतः ।
परलोक्यपि विज्ञेयो युक्तिमार्गानुसारिभिः ॥७८॥
इस प्रकार चेतना के आश्रय रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है। और क्योंकि यह आत्मा एक सदा स्थितिशील तत्त्व है, तार्किक मार्ग के अनुयायियों को चाहिए कि वे इसे एक परलोक गमनशील तत्त्व भी मानें !
टिप्पणी-हरिभद्र के मतानुसार आत्मा एक सदा-स्थितिशील तत्त्व इसलिए है कि वह चेतना का उपादानकारण है; (इसी प्रकार भौतिक वस्तुओं के चरम उपादानकारण भौतिक परमाणु है और वे भी कतिपय सदा स्थितिशील तत्त्व हैं।
(३) मैं-विषयक प्रत्यक्ष अनुभव से आत्मा की सिद्धि सतोऽस्य किं घटस्येव प्रत्यक्षेण न दर्शनम् ।
अस्त्येव दर्शनं स्पष्टमहंप्रत्ययवेदनात् ॥७९॥
पूछा जा सकता है कि यदि आत्मा एक सत्ताशील पदार्थ है तो हमें उसका प्रत्यक्ष दर्शन क्यों नहीं होता—उसी प्रकार जैसे कि एक घड़े का होता है। इस पर हमारा उत्तर होगा कि आत्मा का दर्शन हमें होता ही है और वह इसलिए कि 'मैं हूँ' इस ज्ञान का स्पष्ट अनुभव हमें होता ही है ।।
भ्रान्तोऽहं गुरु रित्येषः सत्यमन्यस्त्वसौ मतः । व्यभिचारित्वतो नास्य गमकत्वमथोच्यते ॥८॥ प्रत्यक्षस्यापि तत् त्याज्यं तत्सद्भावाविशेषतः । प्रत्यक्षाभासमन्यच्चेद् व्यभिचारि न साधु तत् ॥८१॥
अहंप्रत्ययपक्षेऽपि ननु सर्वमिदं समम् । . अतस्तद्वदसौ मुख्यः सम्यक् प्रत्यक्षमिष्यताम् ॥८२॥
कहा जा सकता है कि 'मैं भारी हूँ' यह ज्ञान भ्रान्त है (और इसीलिए 'मैं हूँ' यह ज्ञान भी भ्रान्त होना चाहिये), इसपर हमारा उत्तर है कि 'मैं' भारी हँ' यह ज्ञान भ्रान्त अवश्य है लेकिन 'मैं हूँ' यह ज्ञान दूसरे ही प्रकार का है।
और यदि 'मैं-संबंधी एक ज्ञान के भ्रान्त होने पर 'मैं' संबंधी सभी ज्ञान भ्रान्त १. ख का पाठ : युक्तमार्गा' ।
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