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शास्त्रवार्तासमुच्चय
पर भी उसमें चेतना का उदय नहीं होता। कहा जा सकता है कि यह वायु दूसरी ही वस्तु है (अर्थात् यह वायु प्राण रूप नहीं) लेकिन ऐसा कहना भी ठीक नहीं क्योंकि यह वायु वायु तो है ही.। यदि कहा जाए कि यह वायु प्राण रूप वायु के स्वभाव वाली नहीं तो हमारा उत्तर होगा कि इस कथन के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं। कहा जा सकता है कि प्राणरूप वायु से चेतना की उत्पत्ति होना ही उक्त कथन की सिद्धि करता है (अर्थात् इस कथन की कि वह वायु जिससे चेतना की उत्पत्ति नहीं होती प्राणरूप वायु से भिन्न स्वभाव वाली है), इस पर हमारा उत्तर होगा कि इसी बात में तो संदेह है कि चेतना की उत्पत्ति प्राण रूप वायु से होती है । पूछा जा सकता है कि हमारा मत मानने पर (अर्थात् आत्मा से चेतना की उत्पत्ति मानने पर) यही कठिनाई क्यों नहीं उठती, इस पर हमारा उत्तर है कि आत्मा चेतना स्वरूप है । पूछा जा सकता है कि तो फिर प्राण आदि में चेतना-स्वरूपता का अभाव क्यों; इस पर हमारा उत्तर है कि चेतना की अनुभूति प्राण आदि की अनुभूति से विलक्षण प्रकार की हुआ करती है । कहा जा सकता है कि पुत्रगत चेतना का कारण मातृगत चेतना को मानने में कोई दोष नहीं, इस पर हमारा उत्तर है कि पुत्रगत चेतना का कारण मातृगत चेतना को मानने में भी कोई दोष न हो ऐसी बात नहीं । दूसरे संस्वेदज आदि प्राणियों के माता होती ही नहीं, और ऐसी दशा में संतानगत चेतना का कारण मातृगत चेतना को मानने पर कहना पड़ेगा कि संस्वेदज आदि प्राणियों में चेतना होती ही नहीं । इस संबन्ध में दीपक का (अर्थात् दीपक के प्रकाश का) दृष्टान्त भी हमारे मत का बाधक नहीं, क्योंकि एक दीपक दूसरे दीपक का निमित्तकारण हुआ करता है (उपादान कारण नहीं-जबकि मातृगत चेतना को संतानगत चेतना का उपादान कारण बतलाया जा रहा है) । इस प्रकार मातृगत चेतना पुत्रगत चेतना का उपादानकारण कैसे ही सिद्ध नहीं होती, और यदि पुत्रगत चेतना का उपादानकारण किसी अन्य वस्तु को माना जाए तो वही वस्तु आत्मा ठहरती है ।
टिप्पणी-हरिभद्र हमें यह नहीं बतलाते कि मातृगत चेतना को पुत्रगत चेतना का कारण मानने में मुख्य दोष क्या है, क्योंकि वे केवल यह कहकर रह जाते हैं कि इस मान्यता में दोष न हो ऐसी बात नहीं। अतः हमें ध्यान में रखना चाहिए कि उनकी दृष्टि में उक्त मुख्य दोष यह है कि उस दशा में माता के अनुभव की स्मृति पुत्र को होनी चाहिए। 'संस्वेदज' (शब्दार्थ 'पसीने से उत्पन्न') प्राणी वे जूं आदि हैं जिनके संबंध में कल्पना की गई है कि
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