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ही नहीं अदृष्ट आदि भी हैं ।
न चेह लौकिको मार्गः स्थितोऽस्माभिर्विचार्यते । किं त्वयं युज्यते क्वेति त्वन्नीतौ चोक्तवन्न सः ॥६४॥
शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
दूसरे हम यहाँ लोकसिद्ध अटकलों पर विचार करने नहीं बैठे हैं। हमें विचार इस बात पर करना है कि कौन सी मान्यता किस प्रसंग में युक्तिसंगत सिद्ध होती है, और यह हम अभी दिखा कर चुके हैं कि भूतवादी की मान्यता प्रस्तुत प्रसंग में युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होती ।
मृतदेहे च चैतन्यमुपलभ्येत सर्वथा । देहधर्मादिभावेन तत् तद्धर्मादि नान्यथा ॥६५॥
यदि चेतना शरीर का धर्म आदि होती तो वह मृत शरीर में भी सब प्रकार से पाई जानी चाहिए थी; ऐसा होने पर ही (अर्थात् मृत शरीर में सब प्रकार से पाई जाने पर ही) चेतना शरीर का धर्म आदि हो सकती है वरना कैसे भी नहीं ।
न च लावण्य - कार्कश्य-श्यामत्वैर्व्यभिचारिता । मृतदेहेऽपि सद्भावादध्यक्षेणैव संगतेः ॥ ६६ ॥
हमारे उक्त अनुमान को लावण्य (अर्थात् सलोनापन), कार्कश्य ( अर्थात् खुरदरापन), श्यामता (अर्थात् कालापन) आदि के दृष्टान्त की सहायता से दोषयुक्त नहीं सिद्ध किया जा सकता ( अर्थात् यह नहीं कहा जा सकता कि जिस प्रकार लावण्य आदि शरीर धर्म होते हुए भी मृत शरीर में नहीं पाए जाते उसी प्रकार चेतना भी शरीरधर्म होते हुए भी मृत शरीर में नहीं पाई जाती) । वह इसलिए कि लावण्य आदि मृत शरीर में पाए जाते हैं और यह बात प्रत्यक्षसिद्ध है ।
न चेल्लावण्यसद्भावो न स तन्मात्रहेतुकः ।
अत एवान्यसद्भावादस्त्यात्मेति व्यवस्थितम् ॥६७॥
यदि कहा जाए कि मृत शरीर में लावण्य नहीं पाया जाता तो हमारा उत्तर होगा कि इसका अर्थ यह हुआ कि लावण्य का कारण एकमात्र शरीर नहीं, इसी बात से यह सिद्ध हो गया कि शरीरातिरिक्त किसी तत्त्व की भी सत्ता है और इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा एक सत्ताशील पदार्थ है ।
१. क ख दोनों का पाठ है 'तन्न धर्मादि नान्यथा' लेकिन उक्त पाठ ही मूल पाठ प्रतीत होता है ।
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