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________________ पहला स्तबक इस प्रकार भूतों को ही एकमात्र सत्ताशील पदार्थ मानने पर दो भूतसंघातविशेषों के बीच भेद करना उचित न होगा और वह इसलिए कि उस दशा में इस प्रकार का भेद किए जाने का कोई कारण ही उपस्थित न होगा। इस पूरी परिस्थिति पर भली भाँति विचार किया जाना चाहिए। एकस्तथाऽपरो नेति तन्मात्रत्वे तथाविधः । यतस्तदपि नो भिन्नं ततस्तुल्यं च तत्तयोः ॥६१॥ 'दो भूतसंघात समान भाव से भूतरूप है लेकिन उनमें से एक वैसा (अर्थात् सचेतन) है तथा दूसरा वैसा नहीं' इस परिस्थिति के लिए भूतवादी जिस वस्तु को उत्तरदायी ठहराएगा वह भी उसके मतानुसार कोई भिन्न रूप वाली नहीं होनी चाहिए (अर्थात् वह भी भूतरूप ही होनी चाहिए), और उस दशा में उक्त दोनों भूतसंघातों की भूतरूपता सर्वथा समान होगी (जिसके फलस्वरूप यह नहीं कहा जा सकेगा कि उनमें से एक सचेतन है तथा दूसरा नहीं) । स्यादेतद् भूतजत्वेऽपि ग्रावादीनां विचित्रता । लोकसिद्धेति सिद्धैव न सा तन्मात्रजा ननु ॥१२॥ कहा जा सकता है कि भूतमात्र की उपज होते हुए भी शिला आदि वस्तुएँ परस्पर भिन्न स्वभावों वाली हैं यह बात लोकसिद्ध है (और ठीक इसी प्रकार सचेतन तथा अचेतन वस्तुएँ भी भूतमात्र की उपज होते हुए भी परस्पर भिन्न स्वभावों वाली सिद्ध की जा सकती हैं) । इस पर हमारा उत्तर है कि शिला आदि वस्तुएँ परस्पर भिन्न स्वभावों वाली अवश्य हैं लेकिन उनके स्वभावों के परस्पर भिन्न होने का कारण यह नहीं कि वे भूतमात्र की उपज हैं । अदृष्टाकाश-कालादिसामग्रीतः समुद्भवात् । तथैव लोकसंवित्तेरन्यथा तदभावतः ॥६३॥ इसका कारण यह है कि शिला आदि वस्तुओं का जन्म अदृष्ट, आकाश, काल आदि सामग्री से (जो भूतचतुष्क से बाहर है) होता है और ऐसी ही लोकप्रसिद्धि भी है; यदि ऐसा न हो (अर्थात् यदि शिला आदि वस्तुएँ भूतमात्र की उपज हों) तो उनके स्वभावों के बीच परस्पर भेद संभव ही नहीं होना चाहिए । . टिप्पणी-हरिभद्र का आशय है कि शिला आदि का कारण भूतचतुष्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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