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शास्त्रवार्तासमुच्चय
आदि फल परस्पर भिन्न नहीं ।
टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र किन्हीं खाद्य पदार्थों को व्यक्तिगत रूप से अनेक स्वभावों वाला मानते हुए भी उन्हें अपने चरम फलों की दृष्टि से एक स्वभाव वाला बतला रहे हैं । अर्थात् उनके मतानुसार इन खाद्य पदार्थों का उक्त स्वभावभेद गौण है जबकि उनका उक्त स्वभावसाम्य तात्त्विक है ।
तदात्मकत्वमात्रत्वे संस्थानादिविलक्षणा । यथेयमस्ति भूतानां तथा साऽपि कथं न चेत् ॥५८॥
कहा जा सकता है कि जैसे एक ही प्रकार के द्रव्यों से बने हुए अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ बनावट आदि में परस्पर विलक्षण होने के कारण परस्पर भिन्न स्वभावों वाले हैं वैसे ही भूतों द्वारा बनी हुई अनेक प्रकार की वस्तुएँ भी (सचेतन, अचेतन आदि रूप से) परस्पर भिन्न स्वभावों वाली हैं। इस पर हमारा उत्तर है :
- कर्बभावात् तथा देश-कालभेदाद्ययोगतः ।
न चासिद्धमदो भूतमात्रत्वे तदसंभवात् ॥५९॥
जो बात घी, गुड़, आदि से बने हुए पदार्थों पर लागू होती है वह भूतों द्वारा बनी हुई वस्तुओं पर लागू नहीं हो सकती क्योंकि भूतवादी के मतानुसार भूतों से वस्तुएँ बनाने वाला कोई व्यक्ति नहीं (जैसे कि घी, गुड़ आदि से खाद्य पदार्थ बनाने वाले व्यक्ति हुआ करते हैं) और न ही उसके मतानुसार भूतों के बीच देश, काल आदि संबंधी परस्पर भेद संभव हैं । कहा जा सकता है कि हमारे द्वारा उठाई गई दोंनों आपत्तियाँ निराधार हैं, इस पर हमारा उत्तर है कि जब भूत ही एक मात्र सत्ताशील पदार्थ है (जैसी कि भूतवादी की मान्यता है) तब सचमुच ही न तो भूतों से वस्तुएँ बनाने वाले किसी व्यक्ति का अस्तित्व संभव है और न भूतों के बीच देश काल आदि संबंधी परस्पर भेद का ।
टिप्पणी-हरिभद्र की समझ है कि यदि जगत् में भूत ही एकमात्र वास्तविक सत्ता है तो इस जगत् को एक सर्वथा एक रूप (अर्थात् बाह्य अवान्तर भेदों से सर्वथा रहित) पिण्ड के स्वभाव वाला होना चाहिए ।
तथा च भूतमात्रत्वे न तत्सङ्घातभेदयोः । भेदकाभावतो भेदो.युक्तः सम्यग् विचिन्त्यताम् ॥६०॥
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