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पहला स्तबक
टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका हरिभद्र के भौतिकवादविरोधी अभियान की एक महत्त्वपूर्ण मंजिल का सूत्रपात करती है । देखा जा सकता है कि भौतिकवादी चेतना को एक ऐसा धर्म मानता है जो कुछ भूतों में पाया जाता है तथा कुछ में नहीं; इसके विपरीत, हरिभद्र की समझ है कि चेतना एक ऐसा धर्म है जिसे या तो सब भूतों में होना चाहिए या किसी भी भूत में नहीं । हरिभद्र की समझ से संबन्धित यह स्पष्टीकरण उनकी आगामी कारिकाओं का आशय ग्रहण करने में हमारी सहायता करेगा ।
स्वभावो भूतमात्रत्वे सति न्यायान्न भिद्यते । विशेषणं विना यस्मान्न तुल्यानां विशिष्टता ॥५४॥
दो भूत जब तक भूत मात्र हैं तब तक उनके स्वभावों में परस्पर भेद मानना न्यायसंगत नहीं, क्योंकि एक नए विशेषण को धारण किए बिना कोई वस्तु स्वसदृश एक दूसरी वस्तु की अपेक्षा विशेषता वाली नहीं हो सकती ।
स्वरूपमात्रभेदे च भेदो भूतेतरात्मकः ।
अन्यभेदकभावे तु स एवात्मा प्रसज्यते ॥५५॥
यदि कोई वस्तुविशेष स्वभावतः ही भूतों से भिन्न है तब उसकी भूतों से यह भिन्नता अभौतिकता रूप हुई; और यदि (यह वस्तु स्वयं भौतिक है लेकिन) कोई नई वस्तु इस वस्तु को (अन्य) भूतों से भिन्न बनाती है तो यह नई वस्तु ही आत्मा हुई।
हविर्गुडकणिक्कादिद्रव्यसङ्घातजान्यपि ।
यथा भिन्नस्वभावानि खाद्यकानि तथेति चेत् ॥५६॥
कहा जा सकता है कि यह (अर्थात् कुछ भूतसंघातों का सचेतन तथा कुछ का अचेतन होना) उसी प्रकार संभव है जैसे कि घी, गुड़, आटा आदि एक ही प्रकार के द्रव्यों से बने हुए अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ अनेक प्रकार के स्वभावों वाले होते हैं । इस पर हमारा उत्तर है :
व्यक्तिमात्रत एवैषां ननु भिन्नस्वभावता । रसवीर्यविपाकादिकार्यभेदो न विद्यते ॥५७॥
उक्त खाद्य पदार्थ केवल व्यक्तिशः अनेक प्रकार के स्वभावों वाले हैं लेकिन उनके (घटकभूत घी, गुड़, आट आदि द्रव्यों) द्वारा जनित रस, वीर्यविपाक
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