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शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
क्योंकि यदि स्थूलता को अणुओं से पृथक् माना जाए तो प्रश्न उठता है कि किसी उपादान कारण के अभाव में ऐसी स्थूलता का जन्म कैसे होगा; और यदि स्थूलता का जन्म किसी उपादानकारण के अभाव में भी संभव माना जाए तो उसे सब समय तथा सब स्थानों पर उपस्थित रहना चाहिए ।
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टिप्पणी- हरिभद्र का आशय यह है कि प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति के लिए एक उपादानकारण चाहिए (और कतिपय निमित्तकारण) उनकी मान्यतानुसार एक कार्य का उपादानकारण उस कारण को कहते हैं जिसकी एक नई अवस्थाविशेष यह कार्य है ( जब कि इस कार्य के शेष कारण उसके निमित्तकारण कहलाएँगे) । ऐसी दशा में स्थूलतारूप कार्य की उत्पत्ति के लिए भी कोई उपादानकारण चाहिए और हरिभद्र का कहना है कि यह उपादानकारण वे अणु ही हो सकते हैं जिनमें यह स्थूलता प्रकट हो रही है ।
न चैवं भूतसङ्घातमात्रं चैतन्यमिष्यते ।
अविशेषेण सर्वत्र तद्वत् तद्भावसङ्गतेः ॥५१॥
लेकिन इसी प्रकार (अर्थात् अणुओं में पाई जाने वाली स्थूलता की भाँति ) चेतना को भूतों का संघातमात्र मानना हमें अभीष्ट नहीं, क्योंकि उस दशा में चेतना को सब स्थानों पर समान भाव से वैसे ही उपस्थित रहना चाहिए जैसे कि भूतसंघात सब स्थानों पर समान भाव से उपस्थित रहा करते हैं ।
एवं सति घटादीनां व्यक्तचैतन्यभावतः ।
पुरु षान्न विशेषः स्यात् स च प्रत्यक्षबाधितः ॥ ५२ ॥
उस दशा में (अर्थात् चेतना को भूतसंघातमात्र मानने की दशा में) घट आदि में चेतना की अभिव्यक्ति होनी चाहिए— जिसका अर्थ यह होगा कि घट आदि तथा मनुष्यों के बीच कोई तात्त्विक परस्पर-भेद नहीं, लेकिन यह बात प्रत्यक्ष बाधित है ।
अथ भिन्नस्वभावानि भूतान्येव यतस्ततः । तत्संघातेषु चैतन्यं न सर्वेष्वेतदप्यसत् ॥५३॥
तर्क दिया जा सकता है कि क्योंकि विभिन्न भूत परस्पर भिन्न स्वभावों वाले हैं इसलिए सभी भूतसंघातों में चेतना उपस्थित नहीं रहती, लेकिन इस प्रकार का तर्क दिया जाना उचित नहीं ।
१. ख का पाठ : पुरुषाद्यविशेषः ।
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