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शास्त्रवार्तासमुच्चय
को एक लोकव्यवहारसिद्ध वस्तु न मानना उचित नहीं।
काठिन्याबोधरूपाणि भूतान्यध्यक्षसिद्धितः ।
चेतना तु न तद्रूपा सा कथं तत्फलं भवेत् ? ॥४३॥
यह बात प्रत्यक्षसिद्ध है कि भूत कठोरता तथा जड़ता इन दो धर्मों के स्वभाव वाले (अर्थात् इन धर्मों का आश्रय) हैं और जब चेतना इन धर्मों के स्वभाव वाली (अर्थात् इन धर्मों के साथ रह सकने वाली) नहीं तब उसका जन्म भूतों से हुआ कैसे माना जा सकता है ?
प्रत्येकमसती तेषु न च स्याद् रेणुतैलवत् ।
सती चेदुपलभ्येत भिन्नरूपेषु सर्वदा ॥४४॥
यदि चेतना असम्मिलित भूतों में नहीं रहती तो वह भूतों में नहीं ही रह सकती (अर्थात् तब वह सम्मिलित भूतों में भी नहीं रह सकती)-उसी प्रकार जैसे रेत में तेल नहीं रह सकता । और यदि चेतना भूतों में रहती ही है तब वह असम्मिलित भूतों में भी सदा दीख पड़नी चाहिए।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि किन्हीं भौतिक द्रव्यविशेषों के परस्पर सम्मेलन से निर्मित किसी नए द्रव्य में यदि चेतना रह सकती है तो उसे उक्त भौतिक द्रव्यविशेषों में से प्रत्येक में भी रहना चाहिए।
असत् स्थूलत्वमण्वादौ घटादौ दृश्यते यथा । तथाऽसत्येव भूतेषु चेतनाऽपीति चेन्मतिः ॥४५॥
सोचा जा सकता है कि जिस प्रकार स्थलता अणु आदि में नहीं रहने पर भी (इन अणु आदि से निर्मित) घट आदि में दीख पड़ती है उसी प्रकार चेतना भी (अ-सम्मिलित) भूतों में नहीं ही रहनी चाहिए (यद्यपि वह सम्मिलित भूतों में दीख पड़ती है) । इस पर हमारा उत्तर निम्नलिखित है :
नासत् स्थूलत्वमण्वादौ तेभ्य एव तदुद्भवात् ।
असतस्तत्समुत्पादो न युक्तोऽतिप्रसङ्गतः ॥४६॥
स्थूलता अणु आदि में नहीं रहती ऐसी बात नहीं, क्योंकि उसका जन्म इन्हीं से तो होता है । सचमुच जो वस्तु सर्वथा नास्तित्वशील है उसके संबंध में यह मानना उचित नहीं कि उसका जन्म अणु आदि से होता है, क्योंकि ऐसा मानने पर अवाञ्छनीय परिणाम सिर पर ओढ़ने पड़ेंगे ।
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