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________________ पहला स्तबक १३ यह कहना कि भूतों का उक्त रूपान्तरणविशेष जिस समय अस्तित्व में आता है उस समय वह भूतों से अभिन्न हुआ करता है तब तक युक्ति संगत नहीं जब तक काल की स्वतंत्र सत्ता न स्वीकार की जाए। यदि कहा जाए कि काल संबंधी जैसी मान्यता लोकव्यवहार द्वारा सिद्ध है उसे स्वीकार किया जा सकता है तो हम पूछते हैं कि आत्मा संबंधी जैसी मान्यता लोकव्यवहार द्वारा सिद्ध है उसे स्वीकार क्यों न कर लिया जाए। टिप्पणी- हरिभद्र का आशय यह है कि कोई दार्शनिक 'काल' शब्द के प्रयोग का अधिकारी तब तक नहीं जब तक वह 'काल' संबंधी अपनी विशिष्ट मान्यता को स्पष्ट न कर दे और यदि, कोई दार्शनिक कहे कि वह 'काल' संबंधी लोक- प्रचलित मान्यता से ही अपना काम चला लेगा तो हरिभद्र का उत्तर होगा कि तब तो सभी प्रश्नों पर— उदाहरण के लिए, आत्मा के अस्तित्वनास्तित्व के प्रश्न पर — उसे लोक- प्रचलित मान्यताओं से ही अपना काम चला लेना चाहिए । नात्माऽपि लोके नो सिद्धो जातिस्मरणसंश्रयात् । सर्वेषां तदभावश्च चित्रकर्मविपाकतः ॥४०॥ न यही कहा जा सकता है कि आत्मा संबंधी कैसी भी मान्यता लोकव्यवहार द्वारा सिद्ध नहीं, क्योंकि पूर्वजन्म की स्मृति एक लोक स्वीकृत (लोकानुभव - गोचर) बात है और जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि सब प्राणियों को अपने पूर्वजन्म की स्मृति नहीं होती उसका कारण है प्राणियों के उन उन कर्मों का फलाभिमुख होना । लोकेऽपि नैकतः स्थानादागतानां तथेक्ष्यते । अविशेषेण सर्वेषामनुभूतार्थसंस्मृतिः ॥४१॥ दैनिक जीवन में भी हम देखते हैं कि एक ही स्थान से आने वाले अनेक व्यक्तियों में से सबको (एक साथ) अनुभव की गई घटनाओं की एक सी स्मृति नहीं होती । दिव्यदर्शनतश्चैव तच्छिष्टाव्यभिचारतः । पितृकर्मादिसिद्धेश्च हन्त ! नात्माऽप्यलौकिकः ॥४२॥ क्योंकि दैवी आत्माओं का दर्शन मनुष्यों को (जब तक) हुआ करता है, क्योंकि इन आत्माओं द्वारा कही गई बातें सच होती पाई जाती हैं, क्योंकि पितृतर्पण आदि कार्य शुभ फलों का जनक होते पाए जाते हैं इसलिए आत्मा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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