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________________ १० शास्त्रवार्तासमुच्चय विशिष्टपरिणामाभावेऽपि ह्यत्रावृतिर्न वै । भावताप्तेस्तथा नामव्यञ्जकत्वप्रसङ्गतः ॥३७॥ यह भी कहना उचित नहीं होगा कि भूतों के एक रूपान्तरणविशेष का अभाव ही चेतना का ओवरण करने वाला है, क्योंकि तब तो यह अभाव भावरूप सिद्ध होगा (और वह इसलिए कि आवरण-कार्य एक भावरूप वस्तु द्वारा ही संभव है) । दूसरे, उस दशा में चेतना की अभिव्यक्ति भूतों के उक्त रूपान्तरणविशेष का कार्य होनी चाहिए (न कि भूतों की—जैसी कि भूतवादी की मान्यता है) । टिप्पणी-भौतिकवादी का कहना है कि भूतों का एक रूपान्तरणविशेष चेतना का जनक है—जिसका अर्थ यह हुआ कि इस रूपान्तरणविशेष के अभाव में चेतना का जन्म नहीं होता । इस पर हरिभद्र की दो आपत्तियाँ हैं : (१) 'उक्त रूपान्तरणविशेष के अभाव में चेतना का जन्म नहीं होता' यह कहने का अर्थ है कि यह अभाव चेतना का आवरण करता है, लेकिन एक अभाव आवरण-कार्य में असमर्थ है । (२) 'भूतों का उक्त रूपान्तरण विशेष चेतना को जन्म देता है' यह कहने का अर्थ यह मानना हुआ कि चेतना का जनक भूत नहीं भूतों का उक्त रूपान्तरणविशेष है । देखा जा सकता है कि इन दोनों ही आपत्तियों की अपनी अपनी कठिनाइयाँ हैं । न चासौ भूतभिन्नो यत् ततो व्यक्तिः सदा भवेत् । भेदे त्वधिकभावेन तत्त्वसंख्या न युज्यते ॥३८॥ यह भी कहना उचित नहीं होगा कि भूतों का उक्त रूपान्तरणविशेष भूतों से भिन्न नहीं, क्योंकि तब तो चेतना की अभिव्यक्ति सब समय होनी चाहिए। और यदि कहा जाए कि यह रूपान्तरणविशेष भूतों से भिन्न है तब भूतवादी की अभीष्ट तत्त्वसंख्या युक्तिसंगत नहीं ठहरती (क्योंकि अब भूतवादी अपने अभीष्ट तत्त्वों से अतिरिक्त किसी तत्त्व की संख्या स्वीकार कर रहा होगा) । स्वकालेऽभिन्न इत्येवं कालाभावे न सङ्गतम् । लोकसिद्धाश्रये त्वात्मा हन्त ! नाश्रीयते कथम् ॥३९॥ १. क ख दोनों का पाठ : नाम व्यञ्जक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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