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पहला स्तबक
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शक्तिचेतनयोरैक्यं नानात्वं वाऽथ सर्वथा । ऐक्ये सा चेतनेवेति नानात्वेऽन्यस्य सा यतः ॥३४॥
यह शक्ति तथा चेतना एक दूसरे से या तो सर्वथा अभिन्न होगी या सर्वथा भिन्न, यदि अभिन्न तब तो यह शक्ति चेतना ही हुई (तथा पूर्वोक्त आपत्ति का समाधान नहीं हुआ) और यदि भिन्न तो चेतना किसी अन्य से संबंधित होनी चाहिए (न कि भूत से जिसमें प्रस्तुतवादी ने उस शक्ति का निवास माना था जिसके संबंध में वह अब कह रहा है कि वह चेतना से भिन्न है)।
अनभिव्यक्तिरप्यस्या न्यायतो नोपपद्यते । __ आवृतिर्न' यदन्येन तत्त्वसंख्याविरोधतः ॥३५॥
फिर चेतना की अन-अभिव्यक्ति की बात न्यायसंगत नहीं प्रतीत होती क्योंकि चेतना का आवरण करने वाली अन्य कोई वस्तु नहीं और वह इसलिए कि ऐसी किसी वस्तु की सत्ता स्वीकार करने पर तत्त्वों की संख्या भूतवादी की मान्यता के विरुद्ध ठहरेगी (अर्थात् उस दशा में भूतवादी अपने अभीष्ट तत्त्वों से अतिरिक्त किसी तत्त्व को स्वीकार कर रहा होगा।
टिप्पणी-'क ख में शक्ति रूप से रहता है' यह कहने का अर्थ है कि क ख में अन्-अभिव्यक्त रूप से रहता है जबकि 'क ख में अन्-अभिव्यक्त रूप से रहता है' यह कहने का अर्थ है कि क ख में ग से आवृत रूप में रहता है । हरिभद्र का कहना है कि इन समीकरणों में यदि क के स्थान पर 'चेतना' को रखा जाए तथा ख के स्थान पर 'भूतचतुष्क' को तो ग के स्थान पर 'भूतचतुष्क से अतिरिक्त कोई तत्त्व' को रखना पड़ेगा ।
न चासौ तत्स्वरूपेण तेषामन्यतरेण वा । व्यञ्जकत्वप्रतिज्ञानात् नावृतिळञ्जकं यतः ॥३६॥
न यही कहना उचित होगा कि उक्त आवरण कार्य भूतमात्र का स्वरूप करेगा (अर्थात् कोई भी भूत करेगा) या भूतों में से कोई एक करेगा, क्योंकि भूतवादी की घोषणानुसार भूत चेतना की अभिव्यक्ति करने वाले हैं और सचमुच एक पदार्थ की अभिव्यक्ति करने वाली वस्तु ही उस पदार्थ का आवरण करने वाली वस्तु भी नहीं हो सकती ।
१. क का पाठ : आवृत्तिर्न ।
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