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आत्मा की सत्ता है न अदृष्ट की ।
टिप्पणी-- पुनर्जन्मवादी दार्शनिकों की मान्यतानुसार एक प्राणी को जो सुख-दुःख उसके पूर्वजन्मों के संचित 'कर्मों' के फलस्वरूप मिलते हैं उन्हें अदृष्टजनित सुखदुःख कहा जाता है ( और वह इसलिए कि इन सुखदुःखों का कोई 'दृष्ट' अर्थात् 'इस जन्म में दीख पड़ने वाला' कारण नहीं) । स्पष्ट ही एक भौतिकवादी दार्शनिक, जो आत्मा ही की सत्ता में विश्वास नहीं रखता, "पूर्वजन्मों में संचित "कर्म" रूप अदृष्ट की सत्ता में भी विश्वास नहीं रख सकता । वैसे यशोविजयजी ने 'न चात्मादृष्टसद्भावं मन्यन्ते भूतवादिनः' के स्थान पर 'न चात्मा दृष्टसद्भावं मन्यन्ते भूतवादिन: ' यह पाठ स्वीकार किया है; उनके अनुसार इस कारिकाभाग का अर्थ होगा "भूतवादियों की मान्यता है कि इस जगत् में आत्मा की सत्ता कहीं नहीं जबकि यहाँ सत्ताशील वस्तुएँ ही वे हैं जो प्रत्यक्षज्ञान का विषय बनाई जा सकती हैं ।"
अचेतनानि भूतानि न तद्धर्मो न तत्फलम् । चेतनाऽस्ति च यस्येयं स एवात्मेति चापरे ॥ ३१ ॥
शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
(इसके विपरीत) दूसरे वादियों का कहना है कि भूत अचेतन हैं, चेतना न भूतों का धर्म है न भूतों का फल, जबकि आत्मा उसी तत्त्व का नाम है जिससे चेतना ( धर्म रूप से अथवा फलरूप से ) संबंधित है ।
यदीयं भूतधर्मः स्यात् प्रत्येकं तेषु सर्वदा । उपलभ्येत सत्त्वादिकठिनत्वादयो यथा ॥३२॥
यदि चेतना भूतों का धर्म होती तो वह सभी भूतों में सभी समय पाई जानी चाहिए थी, उसी प्रकार जैसे सत्ता आदि (सामान्य धर्म) तथा कठोरता आदि (विशेष धर्म ) जिन भूतों में भी पाए जाते हैं उनमें सभी समय पाए जाते हैं।
शक्तिरूपेण सा तेषु सदाऽतो नोपलभ्यते ।
न च तेनापि रूपेण सत्यसत्येव चेन्न तत् ॥३३॥
उत्तर दिया जा सकता है 'चेतना भूतों में शक्ति रूप से रहती है और इसलिए हमें उसका दर्शन सदा नहीं होता, लेकिन इस प्रकार से (अर्थात् शक्ति रूप से) भूतों में रहने वाली चेतना को भी भूतों में न रहने वाली तो नहीं कहा जा सकता।' इस पर हमारा कहना निम्नलिखित है
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