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पहला स्तबक
चर्चा को आगे चलकर उठाने की बात कही है वह वस्तुतः पूरे नवे स्तबक में उठाई गई है अर्थात् इस ग्रन्थ में आई सभी सत्ताशास्त्रीय चर्चाओं को समाप्त कर लेने के बाद तथा ग्रन्थ के प्रायः अन्तिम भाग में । इससे जाना जा सकता है कि यद्यपि हरिभद्र अपने इस ग्रन्थ की सत्ताशास्त्रीय चर्चाओं को इसकी मोक्षसाधन विषयक चर्चा के लिए रास्ता साफ करने वाली भर मानते हैं लेकिन उनके ग्रन्थ के अधिकांश भाग को इन सत्ताशास्त्रीय चर्चाओं ने घेरा है न कि इस मोक्षसाधन विषयक चर्चा ने। [यह भी कहा जा सकता है कि जिस आगामी चर्चा का निर्देश हरिभद्र यहाँ कर रहे हैं वह शास्त्रवार्तासमुच्चय की सबसे अन्तिम चर्चा है, लेकिन यह बात तब भी सच रहेगी कि इस अन्तिम चर्चा से पहले आनेवाली चर्चाओं में से अधिकांश का संबंध सत्ताशास्त्रीय प्रश्नों से है ।]
इदानीं तु समासेन शास्त्रसम्यक्त्वमुच्यते ।
कुवादियुक्त्यपव्याख्यानिरासेनाविरोधतः ॥२९॥
इस समय तो हम संक्षेप में यह बतलाएँगे कि (हमारे अभीष्ट) शास्त्र प्रामाणिक कैसे हैं; और अपने इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये हम कुवादियों (=कुतार्किकों) की युक्तियों एवं अपव्याख्याओं का खण्डन करेंगे तथा दिखलाएँगे कि उक्त शास्त्र अन्तर्विरोध (आदि ,दोषों) से मुक्त कैसे हैं ।
टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र सारतः हमें यह बतलाते हैं कि अपने इस ग्रन्थ की सत्ताशास्त्रीय चर्चाओं वाले भाग में उन्होंने क्या किया है। उनका विश्वास है कि जैनदर्शन की सत्ताशास्त्रीय मान्यताएँ सर्वदा सुसंगत है जबकि जैनविरोधी दार्शनिक इन मान्यताओं का खंडन तभी कर पाते हैं जब वे या तो कुतर्कों का सहारा लें या इन मान्यताओं को तोड़ मरोड़ कर श्रोताओं के सामने रखें । इसीलिए हरिभद्र आवश्यक समझते हैं कि जैनेतर दार्शनिक सम्प्रदायों की उन उन सत्ताशास्त्रीय मान्यताओं का खण्डन किया जाए तथा जैन दर्शन की सत्ताशास्त्रीय मान्यताओं का समर्थन ।।
(२) भूतचैतन्यवाद-खण्डन पृथिव्यादिमहाभूतकार्यमात्रमिदं जगत् । न चात्मादृष्टसद्भावं मन्यन्ते भूतवादिनः ॥३०॥
भूतवादियों की मान्यता है कि यह जगत् एकमात्र पृथ्वी आदि महाभूतों से (अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु से) जनमा है और इस जगत् में न कहीं
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