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शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
अतः उन दोनों के (अर्थात् बन्ध-जनक भूत धर्म तथा अधर्म के) क्षय का कोई न कोई कारण माना ही जाना चाहिए, और इस कारण के रूप में ही स्वीकार किया जाना चाहिए वह शुद्ध धर्म जो मोक्ष रूपी फल को प्राप्ति कराने वाला है ।
धर्माधर्मक्षयान्मुक्तिर्यच्चोक्तं पुण्यलक्षणम् ।
हेयं धर्मं तदाश्रित्य न तु संज्ञानयोगकम् ॥२६॥
और जहाँ धर्म तथा अधर्म दोनों के क्षय को मोक्ष का जनक बतलाया गया है वहाँ धर्म से आशय सुखकर सांसारिक अनुभव के जनकभूत उस धर्म से है जो ( सचमुच ) परित्याग किया जाने योग्य है— 'संज्ञानयोग' नाम वाले धर्म से नहीं ।
अतस्तत्रैव युक्ताऽऽस्था यदि सम्यग् निरूप्यते । संसारे सर्वमेवान्यत् दर्शितं दुःखकारणम् ॥२७॥
अतः यदि ध्यान से विचार किया जाए तो इसको ही (अर्थात् 'संज्ञानयोग' नाम वाले धर्म को ही) अनुकूल दृष्टि से देखना उचित प्रतीत होता है; जहाँ तक संसार की दूसरी वस्तुओं का संबंध है, यह दिखलाया ही जा चुका कि वे सब के दुःख के कारण हैं ।
तस्माच्च जायते मुक्तिर्यथा मृत्यादिवर्जिता । तथोपरिष्टाद् वक्ष्यामः सम्यक्शास्त्रानुसारतः ॥ २८ ॥
उक्त प्रकार का धर्म मृत्यु आदि (क्लेशों) से रहित मोक्ष को जन्म कैसे देता है यह हम आगे बतलाएँगे और प्रामाणिक शास्त्रों का अनुसरण करते हुए ।
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टिप्पणी - इस ग्रन्थ में 'सत् - शास्त्र' शब्द का प्रयोग बार बार होने जा रहा है और उसका अर्थ प्रामाणिक शास्त्र - ग्रन्थ करना ठीक रहेगा । अत एव प्रस्तुत कारिका में आए 'सम्यक्शास्त्र' शब्द का भी यही अर्थ किया गया है वैसे यशोविजयजी 'सम्यक्शास्त्रानुसारतः' के स्थान पर 'सम्यक् शास्त्रानुसारतः ' यह पाठ स्वीकार करते हैं तथा उसका अर्थ करते हैं' 'अविरोधपूर्वक शास्त्रतात्पर्य को ग्रहण करते हुए (अर्थात् शास्त्र - तात्पर्य को इस प्रकार ग्रहण करते हुए कि उसमें पूर्वापरविरोध न आए ) " । लेकिन स्पष्ट ही प्रामाणिक शास्त्रों से हरिभद्र का आशय जैन- परंपरा के धार्मिक- दार्शनिक ग्रन्थों से प्रस्तुत है । कारिका में हरिभद्र ने जिस
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