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________________ पहला स्तबक उसका पालन फल की इच्छा रखे बिना नहीं किया जाता) । भोगमुक्तिफलो धर्मः स प्रवृत्तीतरात्मकः ।। सम्यग्मिथ्यादिरूपश्च गतिस्तन्त्रान्तरेष्वपि ॥२३॥ धर्म का इसी प्रकार से द्विविध विभाजन दूसरी परंपराओं में भी किया गया है; उदाहरण के लिए, उनमें से किसी का कहना है कि धर्म दो प्रकार का है-एक भोग का जनक, दूसरा मोक्ष का जनक । किसी का कहना है कि धर्म दो प्रकार का है-एक प्रवृत्ति रूप, दूसरा निवृत्ति रूप, किसी का कहना है कि धर्म दो प्रकार का है—एक मिथ्या, दूसरा सम्यक्, इसी प्रकार और भी । टिप्पणी-देखना कठिन नहीं कि शुभ कोटि के जीवनव्यापारों को इस प्रकार से दो भागों में बाँटना एक पुनर्जन्मवादी-मोक्षवादी दार्शनिक के लिए अनिवार्य हो जाता है । कारिका में आए तीन शब्दयुगलों के संबंध में टीकाकारों का कहना है कि उनमें से पहले का प्रयोग शैवों ने किया है, दूसरे का 'विद्य वृद्धों' (?)ने, तीसरे का किन्हीं बौद्धों ने। तमन्तरेण तु तयोः क्षयः केन प्रसाध्यते । सदा स्यान्न कदाचिद् वा यद्यहेतुक एव सः ॥२४॥ सचमुच, उसके बिना (अर्थात् 'संज्ञानयोग' नाम वाले धर्म के विना) उन दोनों का (अर्थात् उन धर्म तथा अधर्म का जो क्रमशः शुभ तथा अशुभ कर्म बन्ध के जनक सिद्ध होते हैं) क्षय किस को साधन बनाकर किया जाएगा ? और यदि इस क्षय का कोई भी कारण नहीं तो तर्क का तकाजा है कि उसकी (अर्थात् इस क्षय की) उपस्थिति या तो सदा हो या कभी न हो । टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि 'किसी कारण द्वारा अजनित' यह विशेषण या तो एक ऐसी वस्तु को दिया जा सकता है जो सर्वथा मिथ्या हो या उसे जो सर्वथा नित्य (अर्थात् अनादि-अनन्त) हो । ऐसी दशा में यदि कर्मक्षय रूप मोक्ष का कोई कारण नहीं तो वह या तो मिथ्या होनी चाहिए या अनादि-अनन्त । तस्मादवश्यमेष्टव्यः कश्चिद् हेतुस्तयोः क्षये । स एव धर्मो विज्ञेयः शुद्धो मुक्तिफलप्रदः ॥२५॥ १. क का पाठ : सप्रवृत्ती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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