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________________ ६ शास्त्रवार्तासमुच्चय अत: मोक्ष की अभिलाषा करने वालों को चाहिए कि वे उक्त कारण से अधर्म की भाँति धर्म का भी परित्याग करें; हमारे इस सुझाव का दूसरा कारण यह है कि मनीषियों ने धर्म तथा अधर्म दोनों के क्षय को मोक्ष का जनक बतलाया है। उच्यते एवमेवैतत् किन्तु धर्मो द्विधा मतः । संज्ञानयोग एवैकस्तथाऽन्यः पुण्यलक्षणः ॥२०॥ इसके उत्तर में हमारा कहना है कि यह सब ठीक है, लेकिन धर्म दो प्रकार का माना गया है-एक वह जिसका पारिभाषिक नाम 'संज्ञानयोग' है और दूसरा वह जो सुखकर सांसारिक अनुभवों का निमित्त बनता है। ज्ञानयोगस्तपः शुद्धमाशंसादोषवर्जितम् । अभ्यासातिशयादुक्तं तद् विमुक्तः प्रसाधनम् ॥२१॥ 'ज्ञानयोग' नाम है उस शुद्ध तप का जो फलकामना रूपी दोष से मुक्त है और जिसके संबन्ध में अधिकारियों का कहना है कि वह अत्यधिक अभ्यासपूर्वक किया जाने पर मोक्ष की प्राप्ति कराता है । टिप्पणी-संदर्भ से जाना जा सकता है कि यहाँ 'शुद्ध तप'.से हरिभद्र का आशय धर्म अथवा शुभकोटि के जीवनव्यापारों से होना चाहिए । मोक्ष का जनक सिद्ध होने के लिए इन व्यापारों में एक ही विशेषता होनी चाहिए और वह यह कि वे फलकामना से रहित होकर संपादित किये जाएँ । धर्मस्तदपि चेत् सत्यं किं न बन्धफलः स यत् । आशंसा वर्जितोऽन्योऽपि' किं नैवं चेद् न यत् तथा ॥२२॥ कहा जा सकता है कि ('ज्ञानयोग' नाम वाला) यह धर्म भी धर्म तो है ही, और इस कथन की सत्यता स्वीकार करने पर आपत्ति उठाई जा सकती है कि फिर वह बंधको जन्म क्यों नहीं देता । इस पर हमारा उत्तर होगा कि वह इसलिए कि इस दूसरे प्रकार के धर्म का पालन फल ही इच्छा रखे बिना किया जाता है । तब पूछा जाएगा कि उपरोक्त पहले प्रकार का धर्म भी ऐसा ही (अर्थात् बन्ध को जन्म न देने वाला) क्यों नहीं ? इस पर हमारा उत्तर होगा कि वह इसलिए कि उस पहले प्रकार के धर्म के साथ बात ऐसी नहीं (अर्थात् १. ख का पाठ : तद्धि मुक्तेः । २. ख का पाठ : "न्येऽपि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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