________________
पहला स्तबक
कि विवेकी पुरुषों के लिए इनमें से किसी वस्तु को अनुकूल दृष्टि से देखना क्या कहीं उचित होगा ?—हाँ, इस संबन्ध में अपवादरूप से छोड़ दिया जाना चाहिए धर्म जो त्रिलोकवंदित है, निर्दोष है, नित्य है, परोपकारसाधक है, तथा शीलवान् व्यक्तियों द्वारा जीवन में उतारा हुआ है।
आह तत्रापि नो युक्ता यदि सम्यग् निरू प्यते ।
धर्मस्यापि शुभो यस्माद् बन्ध एव फलं मतम् ॥१७॥
इस पर किसी की आपत्ति निम्नलिखित है-"यदि ध्यान से विचार किया जाए तो धर्म के प्रति अनुकूल दृष्टि रखना भी उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि धर्म का फल भी शुभ ('कर्मों का) बंध ही तो है ।
टिप्पणी-यहाँ 'बंध' शब्द का अर्थ अच्छी तरह से समझ लिया जाना चाहिए-ताकि 'मोक्ष' शब्द का अर्थ तत्काल समझ में आ जाए । भारत के सभी पुनर्जन्मवादी दार्शनिकों का विश्वास है कि एक साधारण प्राणी अपने भलेबुरे जीवनव्यापारों के फलस्वरूप शुभ-अशुभ 'कर्मों' का संचय करता है जो उसकी आत्मा से तब तक संलग्न रहते हैं जब तक यह प्राणी अपने किसी न किसी जन्म में इन 'कर्मों' का भला-बुरा फल नहीं भोग लेता [जैन दर्शन की एक अतिरिक्त मान्यता यह है कि 'कर्म' एक अत्यन्त सक्ष्म प्रकार के भौतिक पदार्थ है ।] प्रस्तुत कारिका में 'धर्म' शब्द से पूर्वपक्षी का आशय शुभ कोटि के जीवन व्यापारों से है और उसकी आपत्ति का आशय यह है कि शुभ कोटि के जीवनव्यापारों के फलस्वरूप एक प्राणी शुभ 'कर्मों' का बंध करता है जबकि मोक्ष का अर्थ है शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के 'कर्म-बंध' से मुक्ति ।
न चायसस्य बन्धस्य तदा हेममयस्य च । फले कश्चिद् विशेषोऽस्ति पारतंत्र्याविशेषतः ॥१८॥
सचमुच, लोहे का बन्धन तथा सोने का बन्धन फल की दृष्टि से भिन्न नहीं, और वह इसलिए कि वे दोनों ही परतन्त्रता के जनक समानरूप से हैं।
तस्मादधर्मवत् त्याज्यो धर्मोऽप्येवं मुमुक्षुभिः । धर्माधर्मक्षयान्मुक्तिर्मुनिभिर्वर्णिता यतः ॥१९॥
१. ख का पाठ : मतः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org