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शास्त्रवार्तासमुच्चय
में इस प्रश्न की चर्चा होगी कि किस प्रकार का धर्माचरण मोक्ष दिलाने वाला सिद्ध होता है तथा किस प्रकार का नहीं, यहाँ हमें इतना ही समझ लेना है कि प्रस्तुत कारिका में 'विशुद्ध धर्म' से हरिभद्र का आशय उस प्रकार के धर्माचरण से है जो मोक्ष दिलाने वाला सिद्ध होता है।
अनित्यः प्रियसंयोग इहेा-शोकवत्सलः ।
अनित्यं यौवनं चापि कुत्सिताचरणास्पदम् ॥१२॥
इस संसार में प्रियजनों के साथ होने वाला ईर्ष्या तथा शोक से कातर संयोग अनित्य है और निन्दनीय आचरण का कारणभूत यौवन भी अनित्य है ।
अनित्याः सम्पदस्तीव्रक्लेशवर्गसमुद्भवाः ।
अनित्यं जीवितं चेह सर्वभावनिबन्धनम् ॥१३॥
अनेकों तीव्र क्लेश सहकर कमाई गई सम्पत्ति अनित्य है, और एक व्यक्ति के लिए कुछ भी करना कराना जिसके कारण ही संभव हो पाता है वह इस संसार में जीना भी अनित्य है ।
पुनर्जन्म पुनर्मृत्युहीनादिस्थानसंश्रयः ।।
पुनः पुनश्च यदतः सुखमत्र न विद्यते ॥१४॥
इस संसार में एक आत्मा का बार बार जन्म होता है, बार बार उस की मृत्यु होती है तथा बार बार उसे अधम-अधमतर प्राणि-शरीरों की प्राप्ति होती है, और इस सब का अर्थ है कि इस संसार में सुख कहीं नहीं।
टिप्पणी-कारिका के मूल-शब्दों का अर्थ होगा "उसे हीन आदि प्राणिशरीरों की प्राप्ति होती है" लेकिन टीकाकारों के अनुसार यहाँ "हीन आदि" का अर्थ है "हीन, हीनतर, हीनतम" आदि ।
प्रकृत्यसुन्दरं ह्येवं संसारे सर्वमेव यत् । अतोऽत्र वद किं युक्ता क्वचिदास्था विवेकिनाम् ॥१५॥ मुक्त्वा धर्म जगद्वन्द्यमकलङ्क सनातनम् ।
परार्थसाधकं धीरैः सेवितं शीलशालिभिः ॥१६॥ जब संसार की सभी वस्तुएँ इस प्रकार स्वभावतः असुन्दर हैं तब कहो
१. ख का पाठ : प्रकृत्याऽसुन्दरं ।
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