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पहला स्तबक
गुणियों की सेवा करने के फल है निम्नलिखित-पवित्र उपदेशों का नित्य लाभ, धार्मिक व्यक्तियों का दर्शन, विनयपात्रों (अर्थात् विनयपात्र व्यक्तियों तथा प्रतीकों) के प्रति विनय-प्रदर्शन ।
मैत्री भावयतो नित्यं शुभो भावः प्रजायते ।
ततो भावोदयाज्जन्तोर्वेषाग्निरुपशाम्यति ॥८॥
(सभी प्राणियों के प्रति) मैत्री भावना का सतत प्रदर्शन करने के फलस्वरूप एक व्यक्ति के मन में पवित्र भावों का उदय होता है जबकि पवित्र भाव रूपी इस जल से इस व्यक्ति की द्वेष रूपी अग्नि शान्त होती है ।
अशेषदोषजननी निःशेषगुणघातिनी । .. आत्मीयग्रहमोक्षेण तृष्णाऽपि विनिवर्त्तते ॥९॥
और ममत्वभावना से छुटकारा पाने के फलस्वरूप शान्त होती है तृष्णावह तृष्णा जो सभी दोषों को जन्म देने वाली है तथा सभी गुणों का घात करने वाली है।
एवं गुणगणोपेतो विशुद्धात्मा स्थिराशयः ।
तत्त्वविद्भिः समाख्यातः सम्यग् धर्मस्य साधकः ॥१०॥
(धर्म की कारणभूत पूर्वोक्त बातों के साधनभूत) इन गुणों से सम्पन्न विशुद्धात्मा तथा स्थिरचित्त व्यक्ति के ही संबन्ध में तत्त्ववेत्ताओं ने घोषित किया है कि वह सच्चा धर्मसाधक है ।
टिप्पणी-अर्थात् यद्यपि वस्तुतः यह व्यक्ति उन गुणों से सम्पन्न है जो धर्म की कारणभूत बातों के साधनभूत हैं लेकिन उसे कहा जा सकता है "धर्मसाधक" अर्थात् उन गुणों से सम्पन्न जो धर्म के साधनभूत हैं।
उपादेयश्च संसारे धर्म एव बुधैः सदा । विशुद्धो मुक्तये सर्वं यतोऽन्यद् दुःखकारणम् ॥११॥
इस संसार में बुद्धिमानों द्वारा मोक्षप्राप्ति के उद्देश्य से सदा ग्रहण की जाने योग्य वस्तु एकमात्र विशुद्ध धर्म ही है, और वह इसलिए कि शेष सभी वस्तुएँ दुःख का कारण है ।
टिप्पणी-अभी आगे चलकर क्रमांक १७ से २८ तक की कारिकाओं
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