SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ हिंसाऽनृतादयः पञ्च तत्त्वाश्रद्धानमेव च । क्रोधादयश्च चत्वार इति पापस्य हेतवः ॥ ४ ॥ पाप का कारण बनती हैं इतनी बातें - हिंसा, असत्य आदि (अर्थात् हिंसा, असत्य, चौर्य, अ-ब्रह्मचर्य, परिग्रह ये पाँच चरित्र - दोष), तत्त्व में श्रद्धा का न होना, तथा क्रोध आदि चार (अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार चरित्र - दोष) । शास्त्रवार्त्तासमुच्चय टिप्पणी — हिंसा आदि प्रस्तुत पाँच चरित्र - दोष दूसरी परंपराओं में भी उन उन नामों से जाने जाते हैं; लेकिन क्रोध आदि प्रस्तुत चार चरित्र दोष जैन परंपरा को ही परिचित हैं और 'कषाय' नाम से । विपरीतास्तु धर्मस्य एत एवोदिता बुधैः । एतेषु सततं यत्नः सम्यक् कार्य सुखैषिणा ॥५॥ इन्हीं की विपरीत बातें (अर्थात् अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये पाँच चरित्र - गुण, तत्त्व में श्रद्धा का होना तथा अ-क्रोध, अ-मान अ-माया, अ-लोभ ये चार चरित्र - गुण) बुद्धिमानों ने धर्म का कारण बतलाई हैं और सुख की अभिलाषा करने वाले मनुष्य को चाहिए कि वह धर्म की कारणभूत इन बातों को जीवन में उतारने के लिए सतत तथा सुचारु रूप से प्रयत्न करे । टिप्पणी-कारिका के मूल शब्दों का सीधा अर्थ होगा...." इन बातों में प्रयत्न करे" लेकिन उनका फलितार्थ होगा..." इन बातों को....जीवन में उतारने के लिए प्रयत्न करे" । साधुसेवा सदा भक्त्या मैत्री सत्त्वेषु भावतः । आत्मीयग्रहमोक्षश्च धर्महेतुप्रसाधनम् ॥६॥ धर्म की कारणभूत उक्त बातों के (अर्थात् उन्हें जीवन में उतारने के ) साधन हैं निम्नलिखित — गुणियों की भक्तिपूर्वक सेवा सदा करना, सच्चे हृदय से (सभी) प्राणियों के प्रति मैत्रीभावना प्रदर्शित करना, ममत्व भावना से छुटकारा पाना । उपदेश: शुभो नित्यं दर्शनं धर्मचारिणाम् । स्थाने विनय इत्येतत् साधुसेवाफलं महत् ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy