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का संबन्ध प्रमाणशास्त्र के एक प्रश्न से है । जैसा कि हम पहले कह चुके हैं 'तार्किकों' द्वारा रचित साहित्य के मुख्य प्रतिपाद्य विषय दो थे, एक प्रत्यक्ष, अनुमान तथा दूसरे ज्ञान साधनों का स्वरूप आदि और दूसरे कार्यकारणसंबन्ध का स्वरूप आदि । इनमें से पहले विषय का निरूपण करने वाले साहित्यांश को 'प्रमाणशास्त्र' नाम दिया जा सकता है तथा दूसरे विषय का निरूपण करने वाले साहित्यांश को 'सत्ताशास्त्र' । सत्ताशास्त्रीय चर्चाओं की थोड़ी बानगी हम पा चुके, प्रमाणशास्त्रीय चर्चा का एक उदाहरण (तथा शास्त्रवार्तासमुच्चय में आया इस प्रकार का एक मात्र उदाहरण ) अब हमारे सामने प्रस्तुत है । बौद्ध तार्किक्रों का-जो तार्किक होने के नाते सौत्रांतिक मतानसारी थे- कहना था कि एक शब्द तथा उसके अर्थ के बीच किसी प्रकार का स्वाभाविक संबन्ध नहीं । उनका यह कथन निम्नलिखित दो निरीक्षणों पर आधारित था
(१) एक शब्द अनिवार्यतः एकाधिक वस्तुओं का द्योतक हुआ करता है जबकि किन्हीं भी दो वस्तुओं के सब धर्म परस्पर समान नहीं हो सकते।
(२) एक वक्ता द्वारा बोला गया कोई वाक्य सच भी हो सकता है और झूठ भी ।
इनमें से पहले निरीक्षण के संबन्ध में विरोधियों ने प्रश्न किया : 'एक शब्द अपने द्वारा घोतित वस्तुओं के सभी धर्मों का सूचन भले ही न करें लेकिन क्या वह इन वस्तुओं में से प्रत्येक में पाए जाने वाले किसी धर्मविशेष का भी सूचन नहीं कर सकता ?' बौद्ध तार्किकों ने उत्तर दिया : ‘इन वस्तुओं में से प्रत्येक में पाया जाने वाला धर्म तो एक ही है और वह है "अपने से अन्य सभी वस्तुओं से भिन्न होना" (पारिभाषिक नाम 'अन्यापोह' अथवा 'अपोह) लेकिन यह धर्म निषेधात्मक है और एक शब्द को ऐसे निषेधात्मक धर्म का सूचक मानने से हमें इनकार नहीं (यद्यपि इस बात से हमें इनकार है कि कोई शब्द किसी वस्तु के सभी धर्मों का सूचन कर सकता है)' ।
उक्त दसरे निरीक्षण के संबंध में विरोधियों ने प्रश्न किया : 'भले ही एक वक्ता द्वारा बोला गया कोई वाक्य सच भी हो सकता है और झूठ भी, लेकिन क्या हमारे लिए ऐसी कसौटियाँ निर्धारित करना संभव नहीं जिनकी सहायता
★ यह कहने की आवश्यकता इसलिए है कि ऐसा प्रायः हुआ है कि एक ही ग्रन्थकार ने सौत्रांतिक मत का अनुसरण करते हुए 'तार्किक' साहित्य का प्रणयन किया है तथा योगाचार मत का अनुसरण करते हुए 'तार्किक विरोधी' साहित्य का ।
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