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________________ २६ ग्रंथ में पाए जा सकते हैं ।" और इसके प्रत्युत्तर में चली हरिभद्र की तर्कसरणी को निम्नलिखित प्रकार से रखा जा सकता है : " धर्म तथा अधर्म अतीन्द्रिय वस्तुएँ हैं, अतः उनके संबंध में प्रामाणिक जानकारी न कोई साधारण मनुष्य करा सकता है, न किसी साधारण मनुष्य द्वारा रचित कोई ग्रंथ और वह इसलिए कि अतीन्द्रिय वस्तुओं का ज्ञान कर सकना किसी साधारण मनुष्य के लिए संभव नहीं । फिर भी धर्म-अधर्म के संबंध में प्रामाणिक जानकारी का द्वार हमारे लिए बंद नहीं और वह इसलिए कि यह जानकारी हमें जैन धर्म-ग्रंथों से प्राप्त हो सकती है, जो किसी साधारण मनुष्य की रचना न होकर सर्वज्ञ जैन तीर्थंकरों की रचना है तथा इसलिए उन सब दोषों से मुक्त हैं जो एक सामान्य ग्रंथ में पाए जा सकते हैं" । इस प्रकार मीमांसा धर्मशास्त्रियों की दृष्टि में कोई ग्रंथ धर्म-अधर्म के संबन्ध में प्रामाणिक जानकारी तभी करा सकता है जब वह अपौरुषेय (अर्थात् ग्रंथकारशून्य) हो— जिस शर्त को ( मीमांसा धर्मशास्त्रियों की दृष्टि में ) वेद ही पूरा करते हैं; इसके विपरीत हरिभद्र की दृष्टि में कोई ग्रंथ धर्मअधर्म के संबन्ध में प्रामाणिक जानकारी तभी करा सकता है जब वह सर्वज्ञप्रणीत हो - जिस शर्त को ( हरिभद्र की दृष्टि में ) जैन धर्मग्रंथ ही पूरा करते हैं । अपनी इस स्पष्ट धर्मशास्त्रीय पृष्ठभूमि के बावजूद प्रस्तुत चर्चा दर्शन - शास्त्र के एक तटस्थ विद्यार्थी को दो प्रश्नों के संबन्ध में चिंतनसामग्री प्रदान करती है । एक तो इस प्रश्न के संबन्ध में कि क्या कोई मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है (जिसका उत्तर हरिभद्र 'हाँ' में देंगे तथा मीमांसक 'न' में ) और दूसरे इस प्रश्न के संबन्ध में कि क्या कोई ग्रंथ अपौरुषेय ( अर्थात् ग्रंथकारशून्य) हो सकता है (जिसका उत्तर हरिभद्र 'न', में देंगे तथा मीमांसक 'हाँ' में) । जहाँ तक कतिपय बौद्ध दार्शनिकों का संबन्ध है उन्होंने सर्वज्ञता की संभावना का खंडन केवल इस आधार पर किया कि किसी भी व्यक्ति के संबन्ध में निश्चयपूर्वक यह कह पाना हमारे लिए संभव नहीं कि वह सर्वज्ञ है अथवा अ- सर्वज्ञ, इसके उत्तर में हरिभद्र कुछ ऐसी कसौटियाँ गिनाते हैं जो उनकी दृष्टि में इस बात का निश्चय कराने के लिए पर्याप्त हैं कि कोई व्यक्तिविशेष सर्वज्ञ है अथवा असर्वज्ञ । १०. सौत्रान्तिक- बौद्ध दार्शनिकों का शब्दार्थसंबन्धप्रतिषेधवाद : शास्त्रवार्त्तासमुच्चय में आई अधिकांश चर्चाओं का संबन्ध सत्ताशास्त्र के प्रश्नों से है तथा कुछ का आचारशास्त्र के प्रश्नों से, लेकिन यहाँ की एक चर्चा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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